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Our Directer of CBEIC(CHAMBER OF BUSINESS AND ENTREPRENEUR INDIA COUNCIL)Attende Indian Cooperative Congress.

Prime Minister Narendra Modi will inaugurate the two-day 17th Indian Cooperative Congress on July 1 in the national capital and launch an e-commerce platform NCUI Haat for cooperative products.

Modi will also unveil a cooperative extension and advisory services portal, focusing on a ‘learning management system’ that provides information and services for cooperative members, leaders, managers and the general public.

The prime minister will also unveil a book on ‘Cooperative Growth and Trends in India’, a souvenir on cooperative movement, training modules on “Members’ role in cooperative” and “Governance in cooperatives”, besides a film on the initiatives of the Cooperation Ministry.

Union Home and Cooperation Minister Amit Shah will preside over the inaugural session of the Congress — organised by the National Cooperative Union of India (NCUI) — that will focus on the theme “Amrit Kaal — Prosperity through cooperation for a vibrant India”.

Lok Sabha Speaker Om Birla will be a chief guest at the valedictory function on July 2. Chemical and Fertiliser Minister Mansukh Mandaviya and Animal Husbandry, Fishery and Dairying Minister Parshottam Rupala will also be present.

“The objective of the Congress is to discuss and deliberate upon the key issues, confronting the cooperative sector and chalk out an effective roadmap for the ‘Amrit Kaal’,” NCUI President and IFFCO Chairman Dileep Sanghani said in a press conference here.

The prime minister will launch NCUI’s e-commerce platform ‘NCUI Haat’ for cooperative products. This will facilitate capacity-building support in registration, branding and promotion of products free of cost, he said.

The prime minister’s inaugural address will give a new direction and guidance to the cooperatives working in different fields. The event will be attended by not only 3,500 delegates of cooperative organisations from all over the country but also from across the globe, Sanghani added.

This year’s Indian Cooperative Congress coincides with the International Day of Cooperatives, which is celebrated on the first Saturday of July annually, said International Cooperative Alliance Asia-Pacific (ICA-AP) President and KRIBHCO Chairman Chandra Pal Singh Yadav.

Representatives from eight countries — including Nepal, Bangladesh, Sri Lanka, Iran, Malaysia, Philippines and Papua New Guinea — will attend the event. Besides, representatives from 34 countries, who are members of ICA, will join the event virtually.

The technical sessions will focus on some key issues: cooperative legislation and policy reforms; cross-sectoral collaboration for strengthening cooperative movement; strengthening cooperative education, training and research; ease of doing business for competitive cooperative business enterprises; innovation and technology for cooperative governance; promoting gender equality and social inclusion; and importance of cooperative credit system in the Indian economy.

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दिल्ली व उतर भारत में 100 रुपये किलो बिक रहा टमाटर, जानें महंगाई का कारण व कहां होता है सबसे ज्यादा उत्पादन

दिल्ली और उत्तर भारत में टमाटर का भाव तेजी से बढ़ा है। इसकी कीमत 100 रुपये किलो तक पहुंच गई है. जानें भारत में सबसे ज्यादा कहां होता है टमाटर का उत्पादन।

जानें आखिर क्यों दिल्ली व उत्तर भारत में महंगा हुआ टमाटर
जानें आखिर क्यों दिल्ली व उत्तर भारत में महंगा हुआ टमाटर

टमाटर की कीमत में अचानक भारी उछाल देखने को मिल रहा है. दिल्ली और उत्तर भारत में इस समय टमाटर ((Tomato) का भाव 80 से 100 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गया है। यह उछाल बीते दो दिनों में देखने को मिला है. इससे पहले, बाजार में टमाटर ((Tomato) की कीमत सिर्फ 25 से 30 रुपये प्रति किलो तक थी। मंडी में बढे भाव को लेकर नोएडा स्थित मंडी के सब्जी व्यापारी लालजी शाह का कहना है कि किसान ही उन्हें टमाटर ((Tomato) ज्यादा दाम में बेच रहे हैं। जिसकी वजह से उन्हें इसे महंगा बेचना पड़ रहा है।

इस साल यहां कम हुआ टमाटर का उत्पादन

वहीं, कृषि क्षेत्र से जुड़े विश्लेषकों ने कहा है कि पिछले दिनों देश के अधिकांश हिस्सों में देरी से बारिश व उच्च तापमान की वजह से टमाटर का उत्पादन बेहद कम हुआ था। जिसके चलते टमाटर की कीमतों में भारी उछाल देखने को मिल रहा है. दरअसल, हरियाणा और यूपी में हर साल टमाटर का उत्पादन बेहतर होता रहा है। लेकिन इस साल खराब मौसम ने इन राज्यों में टमाटर की उपज को कम कर दिया है। जिसकी वजह से मंडियों में पर्याप्त मात्रा में टमाटर की पूर्ति नहीं हो पा रही है। ऐसे में सब्जी व्यापारी बंगलुरु व अन्य इलाकों से टमाटर मंगाने पर मजबूर हैं। आज हम बताएंगे कि भारत में सबसे ज्यादा टमाटर का उत्पादन कहां होता है।

यहां होता है सबसे ज्यादा उत्पादन

राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड द्वारा जारी आकड़ों के मुताबिक, भारत में कुल सात राज्य टमाटर का सबसे अधिक उत्पादन करते हैं। जिनमें आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा, गुजरात और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। पूरे देश की 75 प्रतिशत टमाटर की उपज इन्हीं राज्यों में होती है। इसमें भी आंध्र प्रदेश नंबर वन पर काबिज है। यह राज्य अकेले लगभग 18 फीसदी टमाटर का उत्पादन करता है।

ऐसे होती है टमाटर की खेती

टमाटर की खेती के लिए भूमि की पीएच मान 6-7 होना चाहिए. इसके बाद, इसके बीजों को कुछ दूरी पर एक-दूसरे से अलग करके लगाएं ताकि पर्याप्त उपज हो सके। टमाटर के पौधों को बढ़ने के लिए उचित प्रकाश और नियमित रूप से पानी की आवश्यता होती है। वहीं, सबसे जरुरी बात यह है कि टमाटर के लिए उच्च तापमान का ध्यान देना आवश्यक है। अगर तापमान 35 डिग्री सेलसियस से अधिक हो जाता है तो इसकी प्रगति कम हो सकती है. ज्यादा तापमान के चलते ज्यादातर मामलों में पौधे खराब हो जाते हैं।

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2025 तक दुनियाभर के दो-तिहाई लोग जल संकट से जूझेंगे

जिस तरह से दुनिया जल संकट की तरफ तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में अनुमान लगाया जा रहा है कि विश्वभर में साल 2025 तक कई देश जल संकट की परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं। इस लेख में पढ़ें पूरी जानकारी।

Many countries will be forced to live in conditions of water crisis
Many countries will be forced to live in conditions of water crisis

भारत में 9.64 करोड़ क्षेत्र में मरुस्थलीकरण हो रहा है, जो भारत के कुल भूमि क्षेत्र का 30 फीसदी हिस्सा है। देखा जाए तो आने वाले दिनों में मरुस्थलीकरण काफी बड़ी समस्या बन सकती है। यह संयुक्त राष्ट्र के इस अनुमान से समझा जा सकता है कि साल 2025 तक दुनियाभर के दो-तिहाई लोग जल संकट की परिस्थितियों से जूझ सकते हैं, जिससे मरुस्थलीकरण के चलते विस्थापन बढ़ेगा और 13 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ सकता है।

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक विश्व भर के कुल क्षेत्रफल का करीब 20 फीसद भूभाग मरुस्थलीय के रुप में है। जबकि वैश्विक क्षेत्रफल का करीब एक तिहाई भाग सूखाग्रस्त भूमि के रूप में है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है और दुनिया भर में रेगिस्तान का दायरा निरंतर विस्तृत हो रहा है इस कारण आने वाले समय में कई चीजों की कमी हो सकती है। विश्व भर में करीब एक सौ तीस लाख वर्ग किलोमीटर भूमि मानवीय क्रियाकलापों के कारण रेगिस्तान में बदल चुकी है। प्रति मिनट करीब 23 हेक्टेयर उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में तब्दील हो रही है। इस कारण खाद्यान्न उत्पादन में प्रतिवर्ष दो करोड़ टन की कमी आ रही है। दुनिया के दो तिहाई हिस्से में भू क्षरण की समस्या गंभीर हो गई है। इस कारण कृषि उत्पादन पर नकारात्मक असर पड़ रहा है, सूखे तथा प्रदूषण की चुनौती भी बढ़ रही है। भूमि में प्राकृतिक कारणों तथा मानवीय गतिविधियों के कारण जैविक या आर्थिक उत्पादन में कमी की स्थिति को भू-क्षरण कहा जाता है। जब यह अपेक्षाकृत सूखे के क्षेत्र में घटित होता है, तो तब इसे मरुस्थलीकरण कहा जाता है। दरअसल इस समय पूरी दुनिया में धरती पर सिर्फ 30 फ़ीसदी हिस्से में ही वन शेष बचे हैं और उसमें से भी प्रतिवर्ष इंग्लैंड के आकार के बराबर हर साल नष्ट हो रहे हैं दुनिया भर में लोगों के लिए खाने-पीने की समुचित उपलब्ध बनाए रखने की खातिर भू-क्षरण रोकना और नष्ट हुई उर्वरक भूमि को उपजाऊ बनाना आवश्यक है।

चीन ने अपने एक बहुत बड़े रेगिस्तान के क्षेत्र को 30 सालों में हरे-भरे मैदान में बदलकर दुनिया के सामने एक मिसाल पेश की. जहां तक भारत का सवाल है, यहां मरुस्थलीकरण बड़ी समस्या बनता जा रहा है। मरुस्थली क्षेत्र विस्तार भूक्षरण और सूखे पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र के एक उच्च स्तरीय संवाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया था कि भारत अगस्त 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर क्षरित भूमि को उपजाऊ बनाने की दिशा में अग्रसर है जिससे ढाई से तीन अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर कार्बन अवशोषित किया जा सकेगा। भू क्षरण से फिलहाल भारत की करीब 30 फ़ीसदी भूमि प्रभावित है, जो बेहद चिंताजनक है। पर्यावरण क्षति की भरपाई के प्रयासों के तहत पिछले एक दशक में करीब 300000 हेक्टेयर वन क्षेत्र का विस्तार किया गया है।

भारत ने जून 2019 में परीक्षण के तौर पर पांच राज्य हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, नगालैंड, कर्नाटक में वनाच्छादित क्षेत्र बढ़ाने की परियोजना शुरू की थी और अब इस परियोजना को धीरे-धीरे मरुस्थलीकरण से प्रभावित अन्य क्षेत्रों में भी लागू किया जा रहा है। प्रकाशित भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि देशभर में 9.64 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में मरुस्थलीकरण हो रहा है, जो भारत के कुल भूमि क्षेत्र का करीब 30 फ़ीसदी हिस्सा है।

इस क्षरित भूमि का 80 फीसदी हिस्सा केवल 9 राज्यों में राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, और तेलंगाना में है। दिल्ली, त्रिपुरा, नागालैंड, हिमाचल प्रदेश और मिजोरम में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया काफी तेज है। भारत के कई राज्यों जैसे कि झारखंड, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात और गोवा के लगभग 50% से भी अधिक हिस्सों में क्षरण हो रहा है। बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से मरुस्थलीकरण अर्थात उपजाऊ जमीन के बंजर बन जाने की समस्या विकराल हो रही है। सूखे इलाकों में जब लोग पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन करते हैं तो वहां पेड़ पौधे खत्म हो जाते हैं और उस क्षेत्र की जमीन बंजर हो जाती है अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से वैश्विक स्तर पर मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए जन जागरूकता का बढ़ावा दिया जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 1994 में मरुस्थलीकरण रोकथाम का प्रस्ताव रखा था। भारत में उस पर 14 अक्टूबर 1994 को हस्ताक्षर किए। देश के थार मरुस्थल ने उत्तर भारत के मैदानों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। चिंताजनक स्थिति यह है कि थार के मरुस्थल में प्रतिवर्ष 13000 एकड़ से भी अधिक बंजर भूमि को वृद्धि हो रही है।

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Health In Rainy Season: बरसात में बीमारी से बचने के लिए अपनाएं ये छह तरीके, सही रहेगा इम्यून सिस्टम

बरसात के मौसम में लोग अक्सर बीमार पड़ जाते हैं। शरीर में इम्यून कमजोर होने के कारण ऐसा होता है. इन छह तरीकों से बरसात के मौसम में सही रख सकते हैं इम्यून।

इन छह तरीकों से सही रख सकते हैं इम्यून
इन छह तरीकों से सही रख सकते हैं इम्यून

बरसात शुरू होने के साथ ही सभी लोगों को सतर्क हो जाना चाहिए। इस मौसम में खांसी, सर्दी, फ्लू और दस्त के साथ डेंगू व मलेरिया जैसी बीमारियां आम हो जाती हैं। भले ही बरसात का मौसम सभी को अच्छा लगता है। लेकिन इस मौसम में खासकर उन लोगों को बचकर रहना चाहिए. जिन्हें पहले से ही हाई ब्लडप्रेशर, पेट दर्द या थायरॉयड संबंधी समस्याएं हैं। बरसात में भीगने के बाद लोग एलर्जी, फ्लू और सर्दी का शिकार हो सकते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि बारिश में ज्यादातर बीमारियां शरीर में इम्यून कमजोर होने की वजह से बढ़ती है। ऐसे में हमारे बताए इन छह उपायों को अपनाकर अपना इम्यून सही रख सकते हैं।

संतुलित आहार लें

अपने भोजन में विभिन्न प्रकार के फल, सब्जियों, साबुत अनाज, लीन प्रोटीन आदि को शामिल करें. यह आपको इम्यून सिस्टम मजबूत करने व आवश्यक पोषक तत्व और एंटीऑक्सीडेंट प्रदान करने में मदद करेंगे।

हाइड्रेटेड रहें

बरसात में अपने शरीर को हाइड्रेटेड रखने के लिए पूरे दिन खूब पानी पिएं. यह इन्फेक्टेड चीजों को शरीर से बाहर निकालने में मदद करता है और इम्यून सिस्टम को भी मजबूत रखने का काम करता है.

विटामिन सी का सेवन बढ़ाएं

विटामिन सी से भरपूर खाद्य पदार्थ जैसे खट्टे फल, जामुन, कीवी और बेल मिर्च का सेवन करें. ये आपके इम्यून सिस्टम को बढ़ा सकते हैं। इन्हें अपने आहार में शामिल करने पर विचार करें।

पर्याप्त नींद लें

हर रात 7-8 घंटे की अच्छी नींद लें. पर्याप्त आराम आपके शरीर को ठीक होने में मदद करता है और आपकी इम्यून सिस्टम को भी मजबूत करता है। इसके अलावा, सुबह उठने के बाद जॉगिंग या साइकिल चलाने जैसे व्यायाम करें. नियमित शारीरिक गतिविधि से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और संक्रमण का खतरा कम होता है।

स्वच्छ रहें

अपने हाथों को बार-बार साबुन और पानी से कम से कम 20 सेकंड तक धोएं। उचित स्वच्छता कीटाणुओं और संक्रमणों को फैलने से रोकने में मदद करती है। वहीं, बारिश के मौसम में भीड़-भाड़ वाले इलाकों में जाने से बचें. भीड़-भाड़ वाली जगहों पर अपना समय कम से कम बिताने की कोशिश करें।

मच्छरों से रहें सुरक्षित

बारिश के मौसम में मच्छर जनित बीमारियां अधिक होती हैं। मच्छरों के काटने से बचने के लिए मच्छर निरोधकों का प्रयोग करें. वहीं, हमेशा ढके हुए शर्ट व पैंट पहनें। इसके अलावा, मच्छरदानी के नीचे सोएं. अगर बरसात में मच्छरों से सावधानी नहीं बरती तो आप डेंगू व मलेरिया जैसी बीमारियों का शिकार हो सकते हैं।

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राजा जनक ने आखिर खेतों में क्यों चलाया था हल? आज जानिए सही वजह!

पौराणिक साहित्यिक लेखों के अनुसार मिथिला नगर के शासक और माता-सीता के पिता राजा जनक एक विदित किसान हुआ करते थे। राजा जनक के समय में खेती मुख्य रूप से वैदिक पद्धतियों और पौराणिक आदान-प्रदान पर आधारित थी।

Raja Janak
Why did King Janak plow the fields?

भारत के प्राचीन धार्मिक ग्रंथो में से एक रामायण को हर कोई पढ़ता आ रहा है। रामायण कथा में एक ऐसे राजा का भी जिक्र किया गया है जिसने अपने खेतों में हल चलाया था। उसके बाद ही माता सीता का जन्म हुआ था. जी हाँ हम बात कर रहें है मिथिला शासक राजा जनक की। जिन्हें माता सीता के पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि आखिर राजा जनक ने अपने खेतों में हल क्यों चलाया था?  इस लेख में आज हम आपकों यही बताने जा रहें हैं। दरअसल पौराणिक साहित्यिक लेखों के अनुसार मिथिला नगर के शासक और माता सीता के पिता राजा जनक एक विदित किसान हुआ करते थे और वह भी खुद खेती किया करते थे। राजा जनक ने अपने राज्य में कृषि के क्षेत्र को विकसित करने हेतु कई तकनीकें अपनाई और किसानों से व्यक्तिगत रिश्ता बनानें के लिए वे खुद भी खेती किया करते थे।

Why did King Janak plow the fields?
Why did King Janak plow the fields?

अनाजफलसब्जियाँ उगाने में थे माहिर

राजा जनक विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती किया करते थे, जिनमें धान, अनाज, फल, सब्जियाँ आदि शामिल थीं। उन्होंने वैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग करके उत्पादकता को बढ़ाने के लिए कृषि के नवाचारों को अपनाया था। इतना ही नहीं उन्होंने खेती की नीव को बड़ी ही बारीकी से समझा और वैदिक युग में कई ऐसी तकनीक ईजाद की जिनसे तत्कालीन किसान अपनी फसलों की रक्षा करने में सक्षम हो चुके थे।

राजा जनक शुद्ध बीज का संग्रह करने में थे माहिर

राजा जनक खेती व्यवस्था में सुगमता और प्रगति को मजबूती से ध्यान में रखा करते थे। वे बेहतरीन बीज उत्पादन तकनीकों को अपनाते थे। इतना ही नहीं वह बीज भण्डारण के लिए पूर्णतः प्राचीन तकनीक अपनाते थे। राजा जनक के समय में खेती मुख्य रूप से वैदिक पद्धतियों और पौराणिक आदान-प्रदान पर आधारित थी। वैदिक युग में धान, गेहूँ, जौ, बार्ली, तिल, मूँगफली, अदद, राजमांग, मूली, गाजर, शाक आदि प्रमुख फसलों की खेती हुआ करती थी।

हल चला कर जीता प्रजा का दिल

प्राचीन काल में किसानों की मुख्य आय स्रोत कृषि होती थी। उन्होंने धान, गेहूं, जौ, बाजरा, मूंगफली, तिल, आदि फसलें उगाई होती थीं. राजा जनक एक प्रभावशाली और बुद्धिमान राजा थे जो अपने राज्य के विकास और सुख-शांति के लिए प्रयासरत थे। हल चलाना एक कृषि प्रथा थी जिसके माध्यम से उन्होंने अपने भूमि को उपयोगी बनाया, जिससे उनके प्रजा को आवश्यक अन्न और संसाधन मिल सकें। इसके अलावा, हल चलाने से राजा जनक ने अपनी प्रजा के साथ सम्बंध भी मजबूत किए, जिससे उनके राज्य में एक अच्छा सामाजिक और आर्थिक संबंध बना रहा और इसी तरह अपने खेत में एक किसान कि भांति हल चलाने से बेटी के रूप में माता सीता की प्राप्ति हुई।

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बुवाई से पहले देवताओं की पूजा का विशेष महत्त्व

राजा जनक ने अपनी कृषि क्षेत्र में विशेष दक्षता और गहरी समझ का उपयोग कर राज्य में कृषि के विकास में बड़ा योगदान दिया था। प्राचीन वैदिक और पौराणिक प्रमाणों के अनुसार राजा जनक के काल में कृषि और खेती संबंधित कुछ महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। वैदिक साहित्य में खेती की शुरुआत करने से पहले देवताओं की पूजा और वृष्टि की जाती थी। इसके अलावा राजा जनक किसानों के लिए उपयुक्त खाद का भण्डारण भी करवाया करते थे। वैदिक काल में आदर्श समय पर सिंचाई को महत्वपूर्ण माना जाता था। इसके आलावा राजा जनक ने कीट-रोग नियंत्रण को लेकर औषधीय पौधों के उपयोग के बारे में किसानों को ज्ञान भी दिया था। साथ ही यह सुनिश्चित किया जाता था कि उत्पादकता बढ़े और फसलों की गुणवत्ता उच्च हो।

किसानों के लिए विकसित किए कृषि संसाधन

राजा जनक ने जल संचय तकनीकों का उपयोग करके राज्य की सिंचाई व्यवस्था को विकसित किया। जिनमें तालाब, कुआं, बांध, नाले आदि का निर्माण करवाया गया था। राजा जनक जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए उचित खेती तकनीकों का उपयोग करते थे. किसानों की फसलों की सुरक्षा के लिए राजा जनक खेती में प्राकृतिक उपचार का प्रयोग करवाते थे। जो बीमारियों और कीटों के खिलाफ संघर्ष करने में मदद करते थे।

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Why did King Janak plow the fields?

किसानों को मिलती थी बाज़ार की सुविधा 

राजा जनक के शासन काल में बाजार व्यवस्था स्थानीय बाजारों पर आधारित हुआ करती थी. ये छोटे-मोटे बाजार शहरों या गांवों में स्थापित होते थे और विभिन्न फसलों और उत्पादों की व्यापारिक गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण होते थे। बाजार में व्यापारी की भूमिका महत्वपूर्ण थी। वे फसलों और उत्पादों को खरीदते और इसे उपभोक्ता तक पहुंचाते थे। व्यापारी बाजार में उत्पादों की खरीद-बिक्री करके लाभ कमाते थे। प्राचीन काल में व्यापार के माध्यम कच्चे और पके हुए उत्पादों की व्यापारिक आवश्यकताओं के आधार पर लेते थे। इसमें वस्त्र, खाद्य पदार्थ, गहने, सोने-चांदी, औषधियाँ, और अन्य आवश्यक वस्तुएं शामिल हो सकती थीं। व्यापारिक गतिविधियों के लिए मुख्य रूप से व्यापारिक मण्डल, हाट, या विशेष व्यापारिक स्थानों का उपयोग किया जाता था।

इस तरह, राजा जनक ने अपने समय में उत्पादक और पर्यावरण संरक्षण खेती की प्रगति के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग किया. राजा जनक किसान के महत्व की गहराई से अवगत थे, और वे उनके अनुभवों और दुःखों को समझते थे। इतना ही नहीं वह किसानों से जुड़ने के लिए स्वंय खेती किया करते थे और विभिन्न प्रयोग भी किया करते थे. उनकी खेती में रूचि और स्वयं खेती करना अति महत्वपूर्ण माना जाता था, जो वर्तमान में आधुनिक कृषि के नए आयामों की प्रेरणा देते हैं।

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Tomato Variety: टमाटर की 5 हाइब्रिड किस्मों से किसान को मिलेगा अच्छा लाभ, पढ़ें पूरी डिटेल

टमाटर की खेती (Tomato cultivation) करने वाले किसान भाइय़ों के लिए यह लेख काफी मददगार साबित हो सकता है क्योंकि इसमें टमाटर की ऐसी किस्मों के बारे में बताया गया है, जिसे उगाकर किसान अच्छी कमाई कर सकता है।

Hybrid variety of tomato
Hybrid variety of tomato

देश के किसान भाइयों के लिए टमाटर की खेती (Tomato cultivation) किसी फायदे से कम नहीं है। दरअसल इस सब्जियों से किसान हर महीने में अच्छा मुनाफा पा सकते हैं। यह एक ऐसी सब्जी फल है, जिसकी मांग बाजार में साल भर बनी रहती है। इसी के चलते मंडी एवं मार्केट में इसकी कीमत भी हमेशा उच्च रहती है।

अगर आप भी टमाटर की खेती करना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको इसकी सबसे अच्छी किस्मों का चयन करना चाहिए। ताकि आप कम समय में अधिक पैदावार पा सके और फिर उसे सरलता से बाजार में बेचकर मुनाफा कमा सके. जैसा कि आप सब लोग जानते हैं कि खरीफ का सीजन शुरु हो चुका है और देश के ज्यादातर राज्यों में टमाटर की बुवाई किसान भाइयों ने करना भी शुरु कर दी है। अगर आपने अभी तक नहीं की हैं, तो यह लेख आपके लिए अच्छा साबित हो सकता है। दरअसल, आज हम आपके लिए टमाटर की कुछ बेहतरीन किस्मों की जानकारी लेकर आए हैं जिसे आप अपने खेत में सरलता से लगा सकते हैं और डबल मुनाफा पा सकते हैं। तो आइए टमाटर की बेहतरीन किस्मों के बारे में जानते हैं…

अर्का रक्षक (Arka Rakshak)

जैसा कि इसके नाम से पता चलते है कि यह किस्म एक रक्षक है। जी हां यह किस्म टमाटर में लगने वाले प्रमुख रोग, पत्ती, मोड़क विषाणु, जीवाणु झुलसा व अगेती धब्बे की प्रतिरोधी होती है। मिली जानकारी का मुताबिक, टमाटर की यह किस्म लगभग 140 दिनों के अंदर पूरी तरह से तैयार हो जाती है। इससे किसान प्रति हेक्टेयर 75 से 80 टन तक फल का उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। वहीं इसके फलों के वजन की बात करें, तो इनका वजन मध्यम से भारी यानी 75 से 100 ग्राम होता है। यह टमाटर गहरे लाल रंग के होते हैं।

अर्का अभेद  (Arka Abhed)

इसे टमाटर की सबसे हाइब्रिड किस्म (Most Hybrid variety of tomato) कहा जा सकता है. क्योंकि यह 140 से 145 दिनों के अंदर तैयार हो जाती है। इस किस्म का एक टमाटर लगभग 70 से 100 ग्राम तक पाया जाता है। इसकी खेती से किसान भाई प्रति हेक्टेयर से 70-75 टन तक फल प्राप्त कर सकते हैं।

दिव्या (Divya)

टमाटर की इस किस्म को रोपाई के 75 से 90 दिनों के अंदर ही किसान को लाभ मिलना शुरु हो जाता है। इसमें पछेता झुलसा और आंख सडन रोग के लिए रोधी किस्म मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि दिव्या किस्म के टमाटर लंबे समय तक चलते हैं। इसके एक फल का वजन भी काफी अच्छा होता है। देखा जाए तो 70-90 ग्राम तक एक टमाटर होता है।

अर्का विशेष (Arka Vishesh)

इस टमाटर की किस्म से किसान प्रति हेक्टेयर 750-800 क्विंटल तक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। यह कई तरह के उत्पादनों को बनाने में भी इस्तेमाल होता है। इस किस्म के प्रति टमाटर का वजन 70 से 75 ग्राम होता है।

पूसा गौरव (Pusa Gaurav)

इसके टमाटर एक दम लाल रंग के होते हैं और यह आकार में भी अच्छे होते हैं। साथ ही यह चिकने होते ह। इसी के चलते बाजार में इसकी मांग अधिक होती है और यह एक ऐसा टमाटार है, जिसे अन्य बाजारों यानी की दूसरे राज्यों व विदेशों में भी भेजा जाता है।

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Animal Nutrition: इन पोषक तत्वों की कमी से होता है यह रोग, मौसम की मार भी करती है पशु को बीमार

पशुओं को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी हमारी ही होती है. इसके लिए हमको यह जानना भी जरुरी होता है कि पशुओं के शरीर के लिए कौन से पोषक तत्व जरुरी हैं और यह कहाँ से मिल सकते हैं. तो आइये जानते हैं इससे संबंधित पूरी खबर

Animals need vitamins and other nutrients
Animals need vitamins and other nutrients

आज हम सब जानते हैं कि दूध किसानों के लिए एक प्रमुख व्यवसाय के रूप में अपनी पहचान बनाये हुए है। इस दूध की मात्रा लगातार एक जैसी बनी रहे इसके लिए किसान या कोई भी पशुधारक हमेशा ही अपने पशुओं को सुरक्षित रखने का प्रयास करता है। लेकिन इसके बावजूद भी कोई न कोई रोग उनमें आ ही जाता है. इसका प्रमुख कारण यह है जब हम अपने पशुओं को खाने-पीने की चीजों में किसी पोषक तत्व की कमी कर देते हैं तो उनमें उससे संबंधित कोई न कोई रोग लग ही जाता है। तो आइये जानें कौन से पोषक तत्व सबसे जरुरी होते हैं हमारे पशुओं के लिए

इन पोषक तत्वों की कमी से होते हैं पशुओं में यह रोग

कैल्शियम की कमी: कैल्शियम की कमी से पशुओं में रिकेट्स (Rickets) और ओस्टिमालेशिया (Osteomalacia) जैसे रोग हो सकते हैं। ये रोग अक्सर हड्डियों के विकास में दिक्कत का कारण बनते हैं।

आयोडीन की कमी: आयोडीन की कमी से गोध (Goiter) और आयोडीनीय संबंधित रोग (Iodine-deficiency disorders) होते हैं। ये रोग थायरॉइड ग्रंथियों के संबंधित समस्याओं का कारण बनते हैं।

जिंक की कमी: जिंक की कमी से पशुओं में पशु उदर रोग (Bovine Viral Diarrhea) और त्वचा संबंधित समस्याएं (Dermatitis) हो सकती हैं। जिंक की कमी इम्यून सिस्टम को कमजोर करके पशुओं को संक्रमण की संभावना को बढ़ाती है।

विटामिन A की कमी: विटामिन ए की कमी से पशुओं में Night Blindness और प्रजनन संबंधित समस्याएं उत्पन्न करती है।

सेलेनियम C कमी: सेलेनियम की कमी से पशुओं में खांसी, दिल संबंधित समस्याएं और Stiff lamb disease जैसे रोग हो सकते हैं। सेलेनियम पशुओं के स्वास्थ्य और शरीरिक कार्यक्षमता के लिए आवश्यक होता है।

इनकी मात्रा प्रतिदिन होती है आवश्यक

प्रोटीन: पशुओं के लिए प्रोटीन महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह उनके शरीर के निर्माण, मांस और दूध के उत्पादन में मदद करता है. पशुओं के लिए उच्च प्रोटीन संसाधनों की आवश्यकता होती है।

कार्बोहाइड्रेट्स: कार्बोहाइड्रेट्स पशुओं को ऊर्जा प्रदान करते हैं. अनाज, गेहूं और मक्का पशुओं के प्रमुख कार्बोहाइड्रेट स्रोत होते हैं।

विटामिन: पशुओं के लिए विभिन्न विटामिन आवश्यक होते हैं, जैसे विटामिन A, विटामिन D, विटामिन E, विटामिन C, बी-कॉम्प्लेक्स आदि। ये विटामिन पशुओं के शारीरिक विकास, प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण होते हैं।

खनिज: पशुओं के लिए खनिज जैसे कैल्शियम, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, पोटेशियम, सोडियम, आयोडीन, जिंक, सेलेनियम और चुना जैसे पोषक तत्व आवश्यक होते हैं. ये खनिज पशुओं के अच्छे स्वास्थ्य और शारीरिक कार्यक्षमता के लिए आवश्यक होते हैं।

पशुओं को अगर हम इन सभी पोषक तत्वों का पूरा ध्यान रख कर आहार देते हैं तो हम इनसे दूध की भरपूर मात्रा तो प्राप्त करते ही हैं साथ ही पशुओं के स्वास्थ्य में कोई भी कमी नहीं आती है। इन पोषक तत्वों के अलावा भी आपको पशुओं को समय पर पानी पिलाना और धूप, जाड़े आदि से भी सुरक्षित रखना आवश्यक है।

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धान में पानी बचाने के बेहतरीन तरीके, फसल में भी होगी वृद्धि 

अगर आप धान की फसल में अधिक पानी का इस्तेमाल करते हैं, तो यह लेख आप एक बार जरूर पढ़े. ताकि आप धन की फसल में पानी बचाने के तरीके को जानकर लाभ पा सके. बता दें इन तरीकों से आप पानी की बचत तो करेंगे ही साथ ही फसल में भी तेजी से वृद्धि होगी.

How to save water in paddy?
How to save water in paddy?

हरियाणा के कुल भौगोलिक क्षेत्र में से, 80 % भू-भाग पर खेती की जाती है और उसमे से 84% क्षेत्र सिंचित खेती के अंदर आता है। राज्य की फसल गहनता 181 % है और कुल खाद्यान्न उत्पादन 13.1 मिलियन टन है। प्रमुख फसल प्रणालियां चावल-गेहूं, कपास-गेहूं और बाजरा-गेहूं हैं। राज्य का लगभग 62% क्षेत्र खराब गुणवत्ता वाले पानी से सिंचित किया जाता है। इसके बावजूद भी किसान धान की खेती करता है।  राज्य में चावल की खेती के तहत लगभग 1 मिलियन हेक्टेयर है, जो ज्यादातर सिंचित है। राज्य की औसत उत्पादकता लगभग 3.1 टन/हेक्टेयर है। धान की लगातार खेती और इसमें सिंचाई के लिए पानी के इस्तेमाल से लगातार भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। धान के उत्पादन में प्रमुख बाधाएं हैं. पानी की कमी, मिट्टी की लवणता क्षारीयता, जिंक की कमी और बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट। इस लेख में धान की खेती में पानी की बचत करने के बारे में बताया गया है।

कम अवधि वाली किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों (SAU) ने पूसा बासमती 1509 (115 दिन), पूसा बासमती 1692 (115 दिन) और पूसा बासमती 1847 (125 दिन) और पूसा बासमती 1847 (125 दिन) सहित उच्च उपज वाली कम अवधि वाली बासमती चावल की किस्में विकसित की हैं। गैर-बासमती श्रेणी में सुगंधित चावल की किस्में PR 126 (120-125 दिन), पूसा एरोमा 5 (125 दिन) और पूसा 1612 (120 दिन) आती है। जल्दी पकने वाली ये किस्में लगभग 20-25 दिन पहले परिपक्व हो जाती हैं जो किसानों को पुआल प्रबंधन के लिए समय देती है इसके साथ गेहूं की बुवाई के लिए खेतों की तैयार करने का भी समय मिल जाता है। दो से पांच सप्ताह कम समय की वजह से पानी की लागत भी कम हो जाती है।

प्रत्यारोपण का समय

उच्च बाष्पीकरणीय मांग की अवधि (जून) के दौरान चावल की रोपाई के परिणामस्वरूप बहुत अधिक भूजल का खनन हो सकता है। भारतीय राज्य हरियाणा, पंजाब, दिल्ली में जल स्तर वर्तमान में 0.5-1.0 मीटर प्रति वर्ष की दर से गिर रहा है। अनाज की पैदावार बढ़ाने और पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए पानी की बचत की तकनीकों को अपनाने की आवश्यकता है। धान की रोपाई जून के आखिरी सप्ताह या जुलाई के पहले सप्ताह में करनी चाहिए।  ऐसा करने से वाष्पीकरण से उड़ने वाले पानी की बचत होती है और पैदावार का भी ज्यादा नुकसान नहीं होता।  

वैकल्पिक गीली सूखी विधि (AWD)

वैकल्पिक गीली सूखी (AWD) विधि धान की खेती में जल को बचाने के साथ-साथ मीथेन के उत्सृजन को भी नियंत्रित करती है। इस विधि का उपयोग तराई में रहने वाले किसान सिंचित क्षेत्रों में अपने पानी की खपत को कम करने के लिए कर सकते हैं। इस तकनीक का उपयोग करने वाले चावल के खेतों को बारी-बारी से पानी से भरा जाता है और सुखाया जाता है। AWD में मिट्टी को सुखाने के दिनों की संख्या मिट्टी के प्रकार और धान की किस्म के अनुसार 1 दिन से लेकर 10 दिनों से अधिक तक हो सकती है।

कृषि से 10 % ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए चावल की खेती जिम्मेदार है।  AWD को नियंत्रित सिंचाई भी कहा जाता है। सुखी और कठोर मिट्टी में सिंचाई के दिनों की संख्या 1 से 10 दिनों से अधिक हो सकती है। AWD तकनीक को लागू करने का एक व्यावहारिक तरीका एक साधारण वॉटर ट्यूब का उपयोग करके क्षेत्र में जल स्तर की गहराई का ध्यान रखना पड़ता है। जब पानी का स्तर मिट्टी की सतह से 15 से0मी0 नीचे होता है, लगभग 5 से0मी0 तक सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। ऐसा हमे धान में फ्लॉवरिंग के समय करना चाहिए। पानी की कमी से बचने के लिए चावल के खेत में पानी की गहराई 5 सें0मी0 होनी चाहिए, जिससे चावल के दाने की उपज को नुकसान नहीं होता। 15 सें0मी0 के जल स्तर को ‘सुरक्षित AWD‘ कहा जाता है, क्योंकि इससे उपज में कोई कमी नहीं आएगी। चावल के पौधों की जड़ें तर बतर मिट्टी से पानी लेने में सक्षम होती है।

धान की सीधी बिजाई (डीएसआर)

यहां पहले से अंकुरित बीजों को ट्रैक्टर से चलने वाली मशीन द्वारा सीधे खेत में डाला जाता है। इस पद्धति में कोई नर्सरी तैयार करने या रोपाई शामिल नहीं है। किसानों को केवल अपनी भूमि को समतल करना है और बिजाई से पहले एक सिंचाई करनी होती है।

यह पारंपरिक पद्धति से किस प्रकार भिन्न है?

धान की रोपाई में, किसान नर्सरी तैयार करते हैं जहाँ धान के बीजों को पहले बोया जाता है और पौधों में खेतों में रोपाई की जाती है। नर्सरी बीज क्यारी प्रतिरोपित किए जाने वाले क्षेत्र का 5-10% है। फिर इन पौधों को उखाड़कर 25-35 दिन बाद पानी से भरे खेत में लगा दिया जाता है।

डीएसआर का लाभः

  • पानी की बचत:डीएसआर के तहत पहली सिंचाई बुवाई के 21 दिन बाद ही आवश्यक है। इसके विपरीत रोपित धान में, जहां पहले तीन हफ्तों में जलमग्न/बाढ़ की स्थिति सुनिश्चित करने के लिए व्यावहारिक रूप से रोजाना पानी देना पड़ता है।
  • कम श्रम:एक एकड़ धान की रोपाई के लिए लगभग 2,400 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से तीन मजदूरों की आवश्यकता होती है। डीएसआर में इस श्रम की बचत हो जाती है।  
  • डीएसआर के तहत खरपतवार नाशी की लागत 2,000 रुपये प्रति एकड़ से अधिक नहीं होगी।
  • खेत के कम जलमग्न होने के कारण मीथेन उत्सर्जन को कम होता है और चावल की रोपाई की तुलना में मिट्टी के साथ ज्यादा झेडझाड़ भी नहीं होती।

रिज बेड ट्रांसप्लांटिंग

कठोर बनावट वाली मिट्टी में सिंचाई के पानी को बचाने के लिए धान को मेड़ों/क्यारियों पर लगाया जा सकता है। खेत की तैयारी के बाद (बिना पडलिंग किए), उर्वरक की एक बेसल खुराक डालें और रिजर गेहूँ की क्यारी बोने की मशीन से मेड़ों/क्यारियों तैयार करें। रिज में सिंचाई करें और मेड़ों/क्यारियों के ढलानों (दोनों तरफ) के मध्य में पौधे से पौधे की दूरी 9 सें.मी. प्रति वर्ग मीटर 33 अंकुरों को सुनिश्चित करके रोपाई करे।  

लेजर भूमि समतल

धान की रोपाई के बाद स्थापित होने के लिए पहले 15 दिनों के लिए धान के खेत को जलमग्न रखने की आवश्यकता होती है। अधिकतर नर्सरी के पौधे या तो खेत में पानी की कमी या अधिकता के कारण मर जाते हैं। इस प्रकार, उचित पौधे के खड़े होने और अनाज की उपज के लिए भूमि का समतलीकरण करना बहुत आवश्यक है। अध्ययनों ने संकेत दिया है कि खराब फार्म डिजाइन और खेतों की असमानता के कारण खेत में सिंचाई के दौरान पानी की 20-25 % मात्रा बर्बाद हो जाती है।

लेजर लेवेलर के फायदे निम्नलिखित हैः

  • सिंचाई के पानी की बचत करता है।
  • खेती योग्य क्षेत्र में लगभग 3 से 5% की वृद्धि होती है।
  • फसल स्थापना में सुधार होता है।
  • फसल परिपक्वता की एकरूपता में सुधार होता है।
  • जल अनुप्रयोग दक्षता को 50% तक बढ़ाता है।
  • फसल की पैदावार में बढ़ोतरी होती है (गेहूं 15%, गन्ना 42%, चावल 61% और कपास 66% )
  • खरपतवार की समस्या कम होती है और खरपतवार नियंत्रण दक्षता में सुधार होता है।
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Goat Farming: बकरी पालन की वैज्ञानिक विधि से किसानों व पशुपालकों को मिलेगा डबल लाभ

अपना खुद का बिजनेस शुरू करने के लिए बकरी पालन का व्यवसाय (Goat Farming Business) सबसे उत्तम है। इस काम को कोई भी व्यक्ति सरलता से शुरु कर सकता है। उसे बस इसके लिए कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखना चाहिए।

Scientific Method of Goat Rearing
Scientific Method of Goat Rearing

आज के समय में किसान व पशुपालन भाइयों के लिए बकरी पालन का व्यवसाय (Goat Farming Business) बहुत ही तेजी से उभर कर सामने आ रहा है. क्योंकि इसके बिजनेस से लागत कम और कमाई अधिक होती है. अगर आप बकरी पालन को वैज्ञानिक विधि से करते हैं, तो आप कम समय में अच्छा लाभ पा सकते हैं और साथ ही इसके पालन में आपको कई तरह की मदद भी प्राप्त होगी. तो आइए आज के इस लेख में हम बकरी पालन की वैज्ञानिक विधि (Scientific Method of Goat Rearing) की पूरी डिटेल विस्तार से जानते हैं..

बकरी पालने से पहले अच्छी नस्लों का करें चयन

अगर आप बकरी पालन (Goat Farming) करते हैं, तो आपको इसकी अच्छी नस्ल का ज्ञान होना चाहिए जिसे पालकर आप लाभ पा सकें. जमुनापारी, बरबरी, बीटल, कच्छी, गद्दी, ‘द गोट ट्रस्ट’, गुजरी, सोजत, करौली बकरी आदि नस्लों का पालन करें।

बकरी पालन की वैज्ञानिक विधि

अगर आप पहली बार बकरी पालन कर रहे हैं, तो सबसे पहले आप इसके लिए प्रशिक्षण प्राप्त करें. सरकार की कई संस्थाएं हैं, जो मुफ्त में बकरी पालन की ट्रैनिंग देती हैं. इनमें से कुछ मथुरा स्थित केन्द्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान- फ़ोन: (0565) 2763320, 2741991, 2741992, 1800-180-5141 (टोल फ्री) और लखनऊ स्थित द गोट ट्रस्ट (Mobile – 08601873052 to 63) आदि हैं।

बकरी पालन के लिए किसानों व पशुपालकों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह सही समय पर इसे गर्भित कराए और साथ ही स्टॉल फीडिंग की विधि को अपनाएं।

गाभिन करने के लिए सितंबर से नवंबर और अप्रैल से जून माह होता है।

इसके अलावा उचित मात्रा में इनके चारे-पानी का इंतजार करें।

साफ-सफाई का भी अच्छे से ध्यान रखें।

जब बकरी का बच्चा पैदा होता है, तो उसे मां का ही पहला दूध पीने दें. ऐसा करने से बकरी में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और साथ ही इनकी मृत्यु दर में भी कमी देखने को मिलती है।

समय-समय पर अपने नजदीकी पशु चिकित्सा में जाकर इनसे जुड़े कीटाणु नाशक दवाएं जरूर दें।

बकरी के पालन पोषण में मदद

भारत सरकार (Indian government) की ऐसी कई योजनाएं हैं, जो बकरी पालन में आर्थिक रूप से मदद करती हैं. ताकि किसानों व अन्य नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाया जा सके. सरकार की योजना के बारे में पता करने के लिए आपको अपने नजदीकी बैंक, कृषि विज्ञान केंद्र या फिर पशु चिकित्सालयों में जाकर संपर्क करना होगा कि इस समय बकरी पालन के लिए क्या स्कीम है और वह कैसे इसका लाभ उठा सकते हैं।

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ज्वार की फसल से किसानों को दोहरा लाभ, होगी मानव व पशु आहार की व्यवस्था

अगर आप खेती करने की सोच रहे हैं तो ऐसे में आप ज्वार की खेती कर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं, यह फसल आपको अच्छी सेहत के साथ मोटा मुनाफा भी देगी।

Sorghum crop cultivation in india
Sorghum crop cultivation in india

ज्वार मुख्य रूप से खरीफ की एक प्रमुख मिलैट फसलों में से एक है। जिसे किसान भाई खाने के साथ-साथ चारे एवं दाने के रूप में उगाते हैं तथा ज्वार को मोटे अनाजों का राजा भी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश में ज्वार की फसल मुख्य रूप से चारे के लिये उगाई जाती है। ज्वार का इस्तेमाल चारे के रूप में किया जाता है। जानवरों को हरे चारे एंव सूखे चारे तथा साइलेज बनाकर खिलाया जाता है। इस प्रकार ज्वार जानवरों का महत्वपूर्ण एंव पौष्टिक चारा है। गेहूं की तरह ज्वार को भी आटे के रूप में प्रयोग करते हैं। ज्वार में शर्करा की काफी मात्रा पाई जाती है तथा ज्वार की अच्छी फसल के लिये मृदा का पी.एच. मान 5.5-8.5 होना चाहिये।

जलवायुः-ज्वार उष्ण जलवायु की फसल है परन्तु शीघ्र पकने वाली जातिया ठंडे प्रदेशों में भी गर्मीं के दिनों में उगाई जा सकती हैं। 25-30 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर उचित नमी की उपस्थिति में ज्वार की वृद्धि सबसे अच्छी होती है। फसल में बाली निकलते समय 30 डिग्री सेल्सियस सें अधिक तापक्रम, फसल के लिये हानिकारक होता है। 

खेत का चुनाव तथा तैयारीः- बलुई दोमट अथवा ऐसी भूमि जहां जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो, ज्वार की खेती के लिये उपयुक्त होती है। मिटृी पलटने वाले हल से पहली जुताई तथा अन्य दो-तीन जुताई देशी हल से करके खेत को भाली भांति तैयार कर लेना चाहियें।

बुवाई का समयः-

  1. खरीफ ज्वारः- ज्वार की बुवाई हेतु जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय अधिक उपयुक्त है।
  2. रबी ज्वारः- रबी के मौसम में ज्वार की खेती महाराष्ट्र, कर्नाटक व आन्ध्रप्रदेश में की जाती है। यहां पर बुवाई का उपयुक्त समय अक्टूबर से नवम्बर तक है।

उन्नतशील प्रजातियां:- ज्वार की संकर किस्मों में सी.एस.एच.-1 से सी.एस.एच.-8 तक तथा उच्च उपज वाली किस्में सी.एस.वी.-1 से  सी.एस.एच.-7 तथा उ.प्र. में मऊ टा-1, 2, वर्षा, सी.एस.वी.-13, 15 एंव संकर सी.एस.एच.-9, 14 तथा रबी चारे के लिये एम.35-1 तथा चारे वाली किस्में एम-35-1, पूसा चरी, राजस्थान चरी, एस.एस.जी.-888 मीठी सुडान उपयुक्त किस्म है। 

बीज की मात्राः-दाने के खेत की बुआई के लिए किसान भाईयों को  9-12 किलोग्राम/प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है तथा चारे के खेत की बुवाई के लिये किसान भाईयों को 35-40 किलोग्राम/प्रति हेक्टेयर है।

बीजोपचारः-किसान भाईयों का बोने से पूर्व एक किग्रा0 बीज को एक प्रतिशत पारायुक्त रसायन या थीरम के 2.5 ग्राम से शोधित कर लेना चाहियें। जिससे अच्छा जमाव होता है एवं कंडुवा रोग नहीं लगता है। दीमक के प्रकोप से बचने हेतु 25 मि0लीटर प्रति किग्रा0 बीज की दर से क्लोरोपायरीफास दवा से शोधित करना चाहियें।

पंक्तियों एंव पौधों की दूरीः-ज्वार की फसल की बुआई किसान भाईयों को 45 सेमी0 लाइन से लाइन की दूरी पर हल के पीछे करनी चाहियें। पौधे से पौध की दूरी 15-20 सेमी0 होनी चाहिये।

उर्वरक एंव खाद प्रबन्धः-किसान भाईयों को उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना श्रेयस्कर होगा। उत्तम उपज के लिये संकर प्रजातियों के लिये नत्रजन 80 फॅास्फारेस 40 एवं पोटाश 20 किग्रा0 एवं अन्य प्रजातियों हेतु नत्रजन 40 फास्फारेस 20 एवं पोटाश 20 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिये। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फोस्फोरस एंव पोटाश की पूरी मात्रा खेत में बुवाई के समय कूंडों में  बीज के नीचे डाल देनी चाहियें तथा नत्रजन का शेष भाग बुवाई के लगभग 30-35 दिन बाद खड़ी फसल में प्रयोग करना चाहियें।

सिंचाई प्रबन्धः-फसल में बाली निकलते समस और दाना भरते समय यदि खेत में नमी कम हो तो सिंचाई अवश्य कर दी जाए अन्यथा इसका उपज पर प्रतिकूल प्रभाव दिखाई पड़ता है।

खरपतवार नियन्त्रणः-ज्वार की फसल में किसान भाईयों को तीन सप्ताह बाद निराई एवं गुडाई कर देनी चाहियें। यदि खेत में पौधों की संख्या अधिक हो तो थिनिंग कर दूरी निश्चित कर ली जाय।

रसायन नियन्त्रण के लिये एट्राजिन 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के तुरन्त बाद 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव कर देना चाहियें।

कीट नियन्त्रणः- ज्वार की प्ररोह मक्खी (शूट फलाई):- यह घरेलू मक्खी से छोटे आकार की होती है।  जिसका शिशु (मैगेट) जमाव के प्ररम्भ होते ही फसल को हानि पहुंचाता  है। इसके उपचार हेतु मिथाइल ओडिमेटान 25 ई.सी. 1 लीटर अथवा मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिडकाव करें।

तनाछेदक कीटः- इस कीट की सुंडियां तनें में छेद करके अन्दर ही अन्दर खाती रहती है। जिससे बीज का गोभ सूख जाता है। इसके उपचार हेतु क्विनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. 1.50 लीटर को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।

ईयर हेड मिजः- प्रौढ मिज लाल रंग की होती है और यह पुष्प पत्र पर अण्डे देती है। लाल मैगेट्स दानों के अन्दर रहकर उसका रस चूस लेती है, जिससे दाने सूख जाते हैं। इसके उपचार के लिये किसान भाई इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1.5 लीटर अथवा कार्बराइल (50 प्रतिशत घूलनशील चूर्ण) 1.25 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें।

ईयर हेड कैटर पिलरः-इसकी गिडारें मुलायम दाने को खाकर नष्ट कर देती हैं तथा भुटृों में जाला बना देती है। इस रोग के उपचार के लिये इन्डोसल्फान 35 ई.सी का 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का घोल बनाकर छिडकाव करें।

ज्वार का माइटः-यह बहुत ही छोटा होता है, जो पत्तियों की निचली सतह पर जाले बुनकर उन्ही के अन्दर रहकर रस चूसता रहता है। ग्रसित पत्ति लाल रंग की दिखाई पडनें लगती है तथा सूख जाती है। इस रोग के रोकथाम के लिये किसान भाईयों को डाइमेथोएट 30 ई.सी. का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा डायजिनान 20 ई.सी का 1.5 लीटर से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर छिडकाव करें।

फसल की कटाईः-ज्वार के पौधे 110 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते है। जब पौधों पर लगी पत्तिया सूखी दिखाई देने लगे उस दौरान पौधों की कटाई कर लें। इसके फसल की कटाई दो से तीन बार तक की जा सकती है। ज्वार के पौधों को भूमि की सतह के पास से काटा जाता है तथा फसल कटाई के पश्चात्  दानों को अलग कर लिया जाता है, और उन्हें ठीक से सूखा लिया जाता है। इसके बाद मशीन के माध्यम से दानों को अलग कर लें।

फसल की पैदावार और लाभः-एक हेक्टेयर के खेत से हरे चारे के रूप में 600 से 700 क्विंटल तक फसल प्राप्त हो जाती है, तथा सूखे चारे के रूप में 100 से 150 क्विंटल का उत्पादन मिल जाता है जिसमे से 25 क्विंटल तक ज्वार के दाने मिल जाते है। ज्वार के दानों का बाजारी भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल होता है। इस हिसाब से किसान भाई ज्वार की एक बार की फसल से 60 हजार रूपए तक की कमाई प्रति हेक्टेयर के खेत से कर सकते हैं।