काले चावल की खेती से किसान अपनी आमदनी को बेहतर कर सकते हैं। आइए इसके बारे में विस्तार से जानें।
देश में हर साल किसान बड़े पैमाने पर धान की खेती करते हैं. लेकिन ज्यादातर अन्नदाताओं को साधारण चावल की खेती से उचित मुनाफा नहीं मिल पाता है. ऐसे में किसानों के लिए काले धान या चावल की खेती फायदेमंद साबित हो सकती है. तो आइए काले चावल की खेती के बारे में विस्तार से जानें।
पोषक तत्वों का खजाना है काला चावल
काले चावल में प्रोटीन, विटामिन बी, विटामिन बी1, बी2, बी3, बी6 और फोलिक एसिड (बी9) मौजूद होते हैं. जो शरीर के लिए आवश्यक होते हैं. इसके अलावा, काले चावल में फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, सोडियम, पोटेशियम, आयरन और जिंक जैसे खनिज भी पाए जाते हैं. जो बॉन्स की सुरक्षा, खून का निर्माण, मांसपेशियों के कार्यों का समर्थन और अच्छी सेहत के लिए महत्वपूर्ण होते हैं. वहीं, इसमें प्रचुर मात्रा में फाइबर भी मौजूद होता है।
इन राज्यों में होता है काला चावल
पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ में बड़े पैमाने पर काले चावल की खेती होती है. बता दें कि काला चावल सफेद चावल की तुलना में ज्यादा अच्छा माना जाता है. काले चावल में सफेद चावल से ज्यादा पोषक तत्व मौजूद होते हैं. काला चावल खाने से पाचन तंत्र स्वस्थ रहता है और कब्ज की समस्या से राहत मिलती है. काले चावल में कार्बोहाइड्रेट्स की अधिक मात्रा होती है. जो शरीर को ऊर्जा उपलब्ध कराने में मदद करती है. काले चावल की खेती किसी भी मिट्टी में संभव है. गर्मी का मौसम इस चावल की खेती के लिए उपयुक्त होता है. खास बात यह है कि फसल लगाने के बाद काले चवाल का उत्पादन सफेद चावल से ज्यादा होता है।
काले चावल से इतनी कमाई
अब अगर काले चावल से कमाई की बात करें तो बाजार में इसकी कीमत लगभग 400 से 500 रुपये प्रति किलो होती है. वहीं, सफेद चावल ज्यादा से ज्यादा 30 से 40 रुपये किलो के हिसाब से बिकते हैं. इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसान काले चावल की खेती से साल में कितनी कमाई कर सकते हैं।
टमाटर की खेती (Tomato cultivation) करने वाले किसान भाइय़ों के लिए यह लेख काफी मददगार साबित हो सकता है क्योंकि इसमें टमाटर की ऐसी किस्मों के बारे में बताया गया है, जिसे उगाकर किसान अच्छी कमाई कर सकता है।
देश के किसान भाइयों के लिए टमाटर की खेती (Tomato cultivation) किसी फायदे से कम नहीं है। दरअसल इस सब्जियों से किसान हर महीने में अच्छा मुनाफा पा सकते हैं। यह एक ऐसी सब्जी फल है, जिसकी मांग बाजार में साल भर बनी रहती है। इसी के चलते मंडी एवं मार्केट में इसकी कीमत भी हमेशा उच्च रहती है।
अगर आप भी टमाटर की खेती करना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको इसकी सबसे अच्छी किस्मों का चयन करना चाहिए। ताकि आप कम समय में अधिक पैदावार पा सके और फिर उसे सरलता से बाजार में बेचकर मुनाफा कमा सके. जैसा कि आप सब लोग जानते हैं कि खरीफ का सीजन शुरु हो चुका है और देश के ज्यादातर राज्यों में टमाटर की बुवाई किसान भाइयों ने करना भी शुरु कर दी है। अगर आपने अभी तक नहीं की हैं, तो यह लेख आपके लिए अच्छा साबित हो सकता है। दरअसल, आज हम आपके लिए टमाटर की कुछ बेहतरीन किस्मों की जानकारी लेकर आए हैं जिसे आप अपने खेत में सरलता से लगा सकते हैं और डबल मुनाफा पा सकते हैं। तो आइए टमाटर की बेहतरीन किस्मों के बारे में जानते हैं…
अर्का रक्षक (Arka Rakshak)
जैसा कि इसके नाम से पता चलते है कि यह किस्म एक रक्षक है। जी हां यह किस्म टमाटर में लगने वाले प्रमुख रोग, पत्ती, मोड़क विषाणु, जीवाणु झुलसा व अगेती धब्बे की प्रतिरोधी होती है। मिली जानकारी का मुताबिक, टमाटर की यह किस्म लगभग 140 दिनों के अंदर पूरी तरह से तैयार हो जाती है। इससे किसान प्रति हेक्टेयर 75 से 80 टन तक फल का उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। वहीं इसके फलों के वजन की बात करें, तो इनका वजन मध्यम से भारी यानी 75 से 100 ग्राम होता है। यह टमाटर गहरे लाल रंग के होते हैं।
अर्का अभेद (Arka Abhed)
इसे टमाटर की सबसे हाइब्रिड किस्म (Most Hybrid variety of tomato) कहा जा सकता है. क्योंकि यह 140 से 145 दिनों के अंदर तैयार हो जाती है। इस किस्म का एक टमाटर लगभग 70 से 100 ग्राम तक पाया जाता है। इसकी खेती से किसान भाई प्रति हेक्टेयर से 70-75 टन तक फल प्राप्त कर सकते हैं।
दिव्या (Divya)
टमाटर की इस किस्म को रोपाई के 75 से 90 दिनों के अंदर ही किसान को लाभ मिलना शुरु हो जाता है। इसमें पछेता झुलसा और आंख सडन रोग के लिए रोधी किस्म मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि दिव्या किस्म के टमाटर लंबे समय तक चलते हैं। इसके एक फल का वजन भी काफी अच्छा होता है। देखा जाए तो 70-90 ग्राम तक एक टमाटर होता है।
अर्का विशेष (Arka Vishesh)
इस टमाटर की किस्म से किसान प्रति हेक्टेयर 750-800 क्विंटल तक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। यह कई तरह के उत्पादनों को बनाने में भी इस्तेमाल होता है। इस किस्म के प्रति टमाटर का वजन 70 से 75 ग्राम होता है।
पूसा गौरव(Pusa Gaurav)
इसके टमाटर एक दम लाल रंग के होते हैं और यह आकार में भी अच्छे होते हैं। साथ ही यह चिकने होते ह। इसी के चलते बाजार में इसकी मांग अधिक होती है और यह एक ऐसा टमाटार है, जिसे अन्य बाजारों यानी की दूसरे राज्यों व विदेशों में भी भेजा जाता है।
आज हम हर क्षेत्र में तकनीक का उपयोग करके जीवन में सरलता और काम को आसान बना रहे हैं। डेयरी क्षेत्र की एक ऐसी उपयोगी तकनीक के बारे में बताने जा रहे हैं जो एक साथ कई व्यक्तियों का काम कुछ ही देर में कर देती है।
वर्तमान में दूध का व्यवसाय भारत में छोटे से लेकर बड़े स्तर तक होता है. कृषि से जुड़ा यह व्यवसाय आज की आधुनिक मशीनों ने और भी आसान बना दिया है. हम इन्हीं मशीनों के माध्यम से दूध को कुछ देर की जगह कई दिनों तक संरक्षित रख सकते हैं. साथ ही बहुत से अन्य उत्पाद भी इन्हीं मशीनों के माध्यम से ही बनते हैं. आज हम आपको इन्ही से जुड़ी एक मशीन के बारे में बताने जा रहे हैं जिसका प्रयोग हम गाय या भैंस का दूध निकालने के लिए करते हैं। तो आइये जानते हैं कि कैसे करते हैं इसका उपयोग।
दूध दूहने वाली मशीन, जिसे अंग्रेजी में “Milking Machine” कहा जाता है, गाय, भैंस और अन्य दूध देने वाले पशुओं से दूध निकालने के लिए उपयोग होती है. यह व्यवसायिक दूध उत्पादन के क्षेत्र में उपयोग होती है, जहां अधिक संख्या में पशुओं से दूध को सुरक्षित और अधिक संगठित ढंग से निकालने की आवश्यकता होती है. दूध निकालने वाली मशीन को उपयोग में लाने के लिए हम निम्न प्रकार की व्यवस्था कर सकते हैं।
Milking Machine लगाने की सही जगह: मशीन को पशु के आसपास स्थापित किया जाता है और इसके लिए उचित सुविधाएं तैयार की जाती हैं. मशीन में दूध निकालने के लिए एक सीधी कनेक्शन या पाइपलाइन को लगाया जाता है जो दूध इकठ्ठा करने के लिए उपयोगी होता है।
थनों की साफ़ सफाई: थनों को साफ़ करने के लिए पहले तैयारी की जाती है. इसमें थनों को गर्म पानी और दूध से साफ़ करने के लिए विशेष उपकरणों का उपयोग किया जाता है. इससे थनों पर मौजूद जीवाणु, कीटाणु और किसी अन्य पदार्थों को साफ करके दूध के गुणवत्ता को सुनिश्चित किया जाता है।
थनों को स्थिर करना: पशु को थनों को ज्यादा हिलने से बचाने के लिए उपयोगी आयामों और विशेष उपकरणों का उपयोग किया जाता है. इससे दूध निकालने की प्रक्रिया को आसानी से संचालित किया जा सकता है।
ऐसे निकलेगा दूध: मशीन के द्वारा थनों को गाय या भैंस के दूध संकलित करने के लिए विशेष उपकरणों का उपयोग किया जाता है। ये उपकरण थनों को संपीड़ित करके दूध को निकालते हैं और उसको इकठ्ठा करने के लिए उपयोगी निकासी पाइपलाइन या किसी अन्य बर्तन के माध्यम से उसे रखते हैं।
कैसे खरीदें यह मशीन
आप इन मशीनों को ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही तरह से खरीद सकते हैं। ऑनलाइन बाज़ार में इस मशीन की कीमत आपको 10 हजार से शुरू हो जाती है. इनकी कीमत आपके दुग्ध उत्पादन पर भी निर्भर करती है. आपको यह मशीन Amazon, Flipkart जैसे पोर्टल पर मिल जाती है।
यह मशीन डेयरी धारकों के लिए बहुत ही काम की होती है। इसका कारण यह भी है कि उनको एक साथ कई जानवरों का दूध निकाल कर समय पर लोगों को भेजना होता है। इसके लिए यह मशीन काम को बहुत ही आसान बना देती है। आज कल इन मशीनों को बहुत सी कंपनियां बना कर बाज़ार में बेच रही हैं जैसे DeLaval, GEA Farm Technologies, Lely, BouMatic, Fullwood Packo, Milkline आदि कंपनियां इन मशीनों का निर्माण करती हैं।
किसानों की मदद के लिए सरकार हमेशा कोई नया कदम उठाती है. इस समय कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए आकस्मिक फसल योजना की शुरुआत की गई है। आइए, इसके बारे में विस्तार से जानें।
अन्नदाताओं की सहायता के लिए सरकार आए दिन नई योजनाओं के साथ आगे आती है। जलवायु प्रवर्तन व बिपोरजॉय के चलते इस साल मॉनसून आने में देरी कर रहा है। जिसके चलते भारत के कई इलाकों में सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न गई है। उन जगहों पर किसानों की फसल लगभग खराब होने की कगार पर है। इसी बीच, गर्मियों में सूखे जैसी स्थिति को देखते हुए एक राज्य सरकार ने आकस्मिक फसल योजना की शुरूआत की है। जिसके तहत किसानों को नुकसान से काफी राहत मिलेगी। तो आइये जानें किस राज्य में किसानों के लिए शुरू हुई है यह योजना। वहीं, इसका लाभ उठाने के लिए कैसे कर सकते हैं आवेदन।
ये होगा फायदा
मॉनसून व सूखे जैसी समस्या पर गौर फरमाते हुए बिहार सरकार ने अपने राज्य के किसानों के लिए आकस्मिक फसल योजना शुरू की है। इसके तहत सरकार प्रभावित जिलों के किसानों को मुफ्त में वैकल्पिक फसलों का बीज मुहैया कराएगी। किसानों को कुल 15 विभिन्न फसलों के बीज दिए जाएंगे। ऐसे में अगर आप बिहार में खेती किसानी करते हैं तो तुरंत आवेदन करके इसका लाभ उठा सकते हैं। हालांकि, बिहार सरकार की तरफ से यह साफ कर दिया गया है कि इस योजना का लाभ उन्हीं किसानों को मिलेगा, जो सूखाग्रस्त इलाकों से होंगे।
इन फसलों के मिलेंगे बीज
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इस योजना के तहत प्रभावित गांव, पंचायत और प्रखंड के हर एक किसान को अधिकतम दो एकड़ खेत के लिए दो वैकल्पिक फसल के बीज दिए जाएंगे। इस योजना के तहत जिन फसलों के बीज दिए जाएंगे, उनमें धान (प्रमाणित), मक्का (संकर), अरहर, उड़द, तोरिया, सरसों (अगात), मगर (अगात), भिन्डी, मूली, कुल्थी, मडुआ, सांवा, कोदो, ज्वार और बरसीम शामिल हैं।
इस योजना का लाभ उठाने के लिए प्रभावित गांव के किसानों को नजदीकी कृषि केंद्र में जाना होगा। जहां आवेदन करने के लिए जमीन के कागजात, आधार कार्ड, पैन कार्ड, फोटो, मोबाइल नंबर आदि मांगे जा सकते हैं।
अगर आप धान की फसल में अधिक पानी का इस्तेमाल करते हैं, तो यह लेख आप एक बार जरूर पढ़े. ताकि आप धन की फसल में पानी बचाने के तरीके को जानकर लाभ पा सके. बता दें इन तरीकों से आप पानी की बचत तो करेंगे ही साथ ही फसल में भी तेजी से वृद्धि होगी.
हरियाणा के कुल भौगोलिक क्षेत्र में से, 80 % भू-भाग पर खेती की जाती है और उसमे से 84% क्षेत्र सिंचित खेती के अंदर आता है। राज्य की फसल गहनता 181 % है और कुल खाद्यान्न उत्पादन 13.1 मिलियन टन है। प्रमुख फसल प्रणालियां चावल-गेहूं, कपास-गेहूं और बाजरा-गेहूं हैं। राज्य का लगभग 62% क्षेत्र खराब गुणवत्ता वाले पानी से सिंचित किया जाता है। इसके बावजूद भी किसान धान की खेती करता है। राज्य में चावल की खेती के तहत लगभग 1 मिलियन हेक्टेयर है, जो ज्यादातर सिंचित है। राज्य की औसत उत्पादकता लगभग 3.1 टन/हेक्टेयर है। धान की लगातार खेती और इसमें सिंचाई के लिए पानी के इस्तेमाल से लगातार भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। धान के उत्पादन में प्रमुख बाधाएं हैं. पानी की कमी, मिट्टी की लवणता क्षारीयता, जिंक की कमी और बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट। इस लेख में धान की खेती में पानी की बचत करने के बारे में बताया गया है।
कम अवधि वाली किस्में
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों (SAU) ने पूसा बासमती 1509 (115 दिन), पूसा बासमती 1692 (115 दिन) और पूसा बासमती 1847 (125 दिन) और पूसा बासमती 1847 (125 दिन) सहित उच्च उपज वाली कम अवधि वाली बासमती चावल की किस्में विकसित की हैं। गैर-बासमती श्रेणी में सुगंधित चावल की किस्में PR 126 (120-125 दिन), पूसा एरोमा 5 (125 दिन) और पूसा 1612 (120 दिन) आती है। जल्दी पकने वाली ये किस्में लगभग 20-25 दिन पहले परिपक्व हो जाती हैं जो किसानों को पुआल प्रबंधन के लिए समय देती है इसके साथ गेहूं की बुवाई के लिए खेतों की तैयार करने का भी समय मिल जाता है। दो से पांच सप्ताह कम समय की वजह से पानी की लागत भी कम हो जाती है।
प्रत्यारोपण का समय
उच्च बाष्पीकरणीय मांग की अवधि (जून) के दौरान चावल की रोपाई के परिणामस्वरूप बहुत अधिक भूजल का खनन हो सकता है। भारतीय राज्य हरियाणा, पंजाब, दिल्ली में जल स्तर वर्तमान में 0.5-1.0 मीटर प्रति वर्ष की दर से गिर रहा है। अनाज की पैदावार बढ़ाने और पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए पानी की बचत की तकनीकों को अपनाने की आवश्यकता है। धान की रोपाई जून के आखिरी सप्ताह या जुलाई के पहले सप्ताह में करनी चाहिए। ऐसा करने से वाष्पीकरण से उड़ने वाले पानी की बचत होती है और पैदावार का भी ज्यादा नुकसान नहीं होता।
वैकल्पिक गीली सूखी विधि (AWD)
वैकल्पिक गीली सूखी (AWD) विधि धान की खेती में जल को बचाने के साथ-साथ मीथेन के उत्सृजन को भी नियंत्रित करती है। इस विधि का उपयोग तराई में रहने वाले किसान सिंचित क्षेत्रों में अपने पानी की खपत को कम करने के लिए कर सकते हैं। इस तकनीक का उपयोग करने वाले चावल के खेतों को बारी-बारी से पानी से भरा जाता है और सुखाया जाता है। AWD में मिट्टी को सुखाने के दिनों की संख्या मिट्टी के प्रकार और धान की किस्म के अनुसार 1 दिन से लेकर 10 दिनों से अधिक तक हो सकती है।
कृषि से 10 % ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए चावल की खेती जिम्मेदार है। AWD को नियंत्रित सिंचाई भी कहा जाता है। सुखी और कठोर मिट्टी में सिंचाई के दिनों की संख्या 1 से 10 दिनों से अधिक हो सकती है। AWD तकनीक को लागू करने का एक व्यावहारिक तरीका एक साधारण वॉटर ट्यूब का उपयोग करके क्षेत्र में जल स्तर की गहराई का ध्यान रखना पड़ता है। जब पानी का स्तर मिट्टी की सतह से 15 से0मी0 नीचे होता है, लगभग 5 से0मी0 तक सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। ऐसा हमे धान में फ्लॉवरिंग के समय करना चाहिए। पानी की कमी से बचने के लिए चावल के खेत में पानी की गहराई 5 सें0मी0 होनी चाहिए, जिससे चावल के दाने की उपज को नुकसान नहीं होता। 15 सें0मी0 के जल स्तर को ‘सुरक्षित AWD‘ कहा जाता है, क्योंकि इससे उपज में कोई कमी नहीं आएगी। चावल के पौधों की जड़ें तर बतर मिट्टी से पानी लेने में सक्षम होती है।
धान की सीधी बिजाई (डीएसआर)
यहां पहले से अंकुरित बीजों को ट्रैक्टर से चलने वाली मशीन द्वारा सीधे खेत में डाला जाता है। इस पद्धति में कोई नर्सरी तैयार करने या रोपाई शामिल नहीं है। किसानों को केवल अपनी भूमि को समतल करना है और बिजाई से पहले एक सिंचाई करनी होती है।
यह पारंपरिक पद्धति से किस प्रकार भिन्न है?
धान की रोपाई में, किसान नर्सरी तैयार करते हैं जहाँ धान के बीजों को पहले बोया जाता है और पौधों में खेतों में रोपाई की जाती है। नर्सरी बीज क्यारी प्रतिरोपित किए जाने वाले क्षेत्र का 5-10% है। फिर इन पौधों को उखाड़कर 25-35 दिन बाद पानी से भरे खेत में लगा दिया जाता है।
डीएसआर का लाभः
पानी की बचत:डीएसआर के तहत पहली सिंचाई बुवाई के 21 दिन बाद ही आवश्यक है। इसके विपरीत रोपित धान में, जहां पहले तीन हफ्तों में जलमग्न/बाढ़ की स्थिति सुनिश्चित करने के लिए व्यावहारिक रूप से रोजाना पानी देना पड़ता है।
कम श्रम:एक एकड़ धान की रोपाई के लिए लगभग 2,400 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से तीन मजदूरों की आवश्यकता होती है। डीएसआर में इस श्रम की बचत हो जाती है।
डीएसआर के तहत खरपतवार नाशी की लागत 2,000 रुपये प्रति एकड़ से अधिक नहीं होगी।
खेत के कम जलमग्न होने के कारण मीथेन उत्सर्जन को कम होता है और चावल की रोपाई की तुलना में मिट्टी के साथ ज्यादा झेडझाड़ भी नहीं होती।
रिज बेड ट्रांसप्लांटिंग
कठोर बनावट वाली मिट्टी में सिंचाई के पानी को बचाने के लिए धान को मेड़ों/क्यारियों पर लगाया जा सकता है। खेत की तैयारी के बाद (बिना पडलिंग किए), उर्वरक की एक बेसल खुराक डालें और रिजर गेहूँ की क्यारी बोने की मशीन से मेड़ों/क्यारियों तैयार करें। रिज में सिंचाई करें और मेड़ों/क्यारियों के ढलानों (दोनों तरफ) के मध्य में पौधे से पौधे की दूरी 9 सें.मी. प्रति वर्ग मीटर 33 अंकुरों को सुनिश्चित करके रोपाई करे।
लेजर भूमि समतल
धान की रोपाई के बाद स्थापित होने के लिए पहले 15 दिनों के लिए धान के खेत को जलमग्न रखने की आवश्यकता होती है। अधिकतर नर्सरी के पौधे या तो खेत में पानी की कमी या अधिकता के कारण मर जाते हैं। इस प्रकार, उचित पौधे के खड़े होने और अनाज की उपज के लिए भूमि का समतलीकरण करना बहुत आवश्यक है। अध्ययनों ने संकेत दिया है कि खराब फार्म डिजाइन और खेतों की असमानता के कारण खेत में सिंचाई के दौरान पानी की 20-25 % मात्रा बर्बाद हो जाती है।
लेजर लेवेलर के फायदे निम्नलिखित हैः
सिंचाई के पानी की बचत करता है।
खेती योग्य क्षेत्र में लगभग 3 से 5% की वृद्धि होती है।
फसल स्थापना में सुधार होता है।
फसल परिपक्वता की एकरूपता में सुधार होता है।
जल अनुप्रयोग दक्षता को 50% तक बढ़ाता है।
फसल की पैदावार में बढ़ोतरी होती है (गेहूं 15%, गन्ना 42%, चावल 61% और कपास 66% )
खरपतवार की समस्या कम होती है और खरपतवार नियंत्रण दक्षता में सुधार होता है।
अपना खुद का बिजनेस शुरू करने के लिए बकरी पालन का व्यवसाय (Goat Farming Business) सबसे उत्तम है। इस काम को कोई भी व्यक्ति सरलता से शुरु कर सकता है। उसे बस इसके लिए कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखना चाहिए।
आज के समय में किसान व पशुपालन भाइयों के लिए बकरी पालन का व्यवसाय (Goat Farming Business) बहुत ही तेजी से उभर कर सामने आ रहा है. क्योंकि इसके बिजनेस से लागत कम और कमाई अधिक होती है. अगर आप बकरी पालन को वैज्ञानिक विधि से करते हैं, तो आप कम समय में अच्छा लाभ पा सकते हैं और साथ ही इसके पालन में आपको कई तरह की मदद भी प्राप्त होगी. तो आइए आज के इस लेख में हम बकरी पालन की वैज्ञानिक विधि (Scientific Method of Goat Rearing) की पूरी डिटेल विस्तार से जानते हैं..
बकरी पालने से पहले अच्छी नस्लों का करें चयन
अगर आप बकरी पालन (Goat Farming) करते हैं, तो आपको इसकी अच्छी नस्ल का ज्ञान होना चाहिए जिसे पालकर आप लाभ पा सकें. जमुनापारी, बरबरी, बीटल, कच्छी, गद्दी, ‘द गोट ट्रस्ट’, गुजरी, सोजत, करौली बकरी आदि नस्लों का पालन करें।
बकरी पालन की वैज्ञानिक विधि
अगर आप पहली बार बकरी पालन कर रहे हैं, तो सबसे पहले आप इसके लिए प्रशिक्षण प्राप्त करें. सरकार की कई संस्थाएं हैं, जो मुफ्त में बकरी पालन की ट्रैनिंग देती हैं. इनमें से कुछ मथुरा स्थित केन्द्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान- फ़ोन: (0565) 2763320, 2741991, 2741992, 1800-180-5141 (टोल फ्री) और लखनऊ स्थित द गोट ट्रस्ट (Mobile – 08601873052 to 63) आदि हैं।
बकरी पालन के लिए किसानों व पशुपालकों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह सही समय पर इसे गर्भित कराए और साथ ही स्टॉल फीडिंग की विधि को अपनाएं।
गाभिन करने के लिए सितंबर से नवंबर और अप्रैल से जून माह होता है।
इसके अलावा उचित मात्रा में इनके चारे-पानी का इंतजार करें।
साफ-सफाई का भी अच्छे से ध्यान रखें।
जब बकरी का बच्चा पैदा होता है, तो उसे मां का ही पहला दूध पीने दें. ऐसा करने से बकरी में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और साथ ही इनकी मृत्यु दर में भी कमी देखने को मिलती है।
समय-समय पर अपने नजदीकी पशु चिकित्सा में जाकर इनसे जुड़े कीटाणु नाशक दवाएं जरूर दें।
बकरी के पालन पोषण में मदद
भारत सरकार (Indian government) की ऐसी कई योजनाएं हैं, जो बकरी पालन में आर्थिक रूप से मदद करती हैं. ताकि किसानों व अन्य नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाया जा सके. सरकार की योजना के बारे में पता करने के लिए आपको अपने नजदीकी बैंक, कृषि विज्ञान केंद्र या फिर पशु चिकित्सालयों में जाकर संपर्क करना होगा कि इस समय बकरी पालन के लिए क्या स्कीम है और वह कैसे इसका लाभ उठा सकते हैं।
अगर आप घर बैठे अपने बिजनेस से 8 से 10 लाख रुपए की कमाई करना चाहते हैं, तो आप इस पक्षी का पालन करें। दरअसल, यह पक्षी कम लागत में अच्छा मुनाफा कमाकर देते हैं।
अगर आप पशुपालन से जुड़ें बिजनेस को शुरू करने के बारे में विचार कर रहे हैं, तो आज हम आपके लिए एक बेहतरीन पक्षी के व्यवसाय को लेकर आए हैं। जी हां जिस पक्षी की हम बात कर रहे हैं, वह मुर्गी की नस्ल (Breed of Chicken) का है। जिसे गिनी फाउल के नाम से जाना जाता है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि गिनी फाउल पालन के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग चकोर मुर्गी पालन के नाम से जानते हैं। अगर आप गांव से हैं, तो आपने यह नाम कई बार सुना ही होगा। अब आइए आज हम इस पक्षी की खासियत व बिजनेस के बारे में विस्तार से जानते हैं।
गिनी फाउल पक्षी (Guinea Fowl Bird)
यह कोई देसी पक्षी नहीं है, बल्कि यह एक विदेशी पक्षी है, जो कि अफ्रीका के गिनिया द्वीप समूह में सबसे अधिक पाए जाते हैं। इसकी जगह के चलते ही इस पक्षी को गिनी फाउल कहा जाता है। ताकि इसकी पहचान इसके स्थान से हो सके। अगर कोई व्यक्ति इस पक्षी को पालता है, तो वह इससे कम समय में ही अच्छा लाभ पा सकते हैं। क्योंकि यह पक्षी कम लागत व कम समय में पल जाता है। इसे पालने के लिए अधिक कुछ करना भी नहीं पड़ता है।
गिनी फाउल पक्षी की खासियत (Specialty of Guinea Fowl Bird)
इस पक्षी को पालने के लिए करीब 60 से 70 प्रतिशत तक ही किसानों को खर्च करना पड़ता है।
इस पक्षी पर मौसम की मार का कोई भी असर नहीं पड़ता है, चाहे वह सर्दी हो, गर्मी हो या फिर बारिश का मौसम हो।
यह भी पाया गया है कि गिनी पक्षी बीमार भी बहुत ही कम होता है।
इस पक्षी के अंडे कई दिनों तक स्टोर करके रखा जा सकता है।
गिनी पक्षी करीब 90 से 100 अंडे देती है।
इस पक्षी का अंडा सामान्य मुर्गी से कई अधिक मोटा व बड़ा होता है।
बाजार में इस पक्षी का एक अंडा लगभग 17 से 20 रुपए तक बिकता है।
ऐसे करें गिनी पक्षी का पालन
अगर आप पहले मुर्गी पालन (Poultry Farming) करते थे, तो आप इसे सरलता से पाल पाएंगे। क्योंकि इसका पालन मुर्गी की तरह ही किया जाता है। अगर आप पहली बार इस बिजनेस को कर रहे हैं, तो आप इसकी शुरुआत छोटे स्तर पर करें, ताकि आप इसे सीख सकें। गिनी फाउल पालन के लिए आप केंद्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान बरेली से भी संपर्क कर मदद प्राप्त कर सकते हैं।
लागत व मुनाफा
इस पक्षी का पालन करके ज्यादातर किसान भाई कम समय में भी हजारों-लाखों की कमाई कर रहे हैं। देखा जाए तो गिनी फाउल पालन से किसान हर साल 8 से 10 लाख रुपए की कमाई सरलता से कर सकते हैं। वहीं अगर आप 1000 गिनी का पालन करते हैं, तो इसके लिए आपको 5 से 10 हजार रुपए खर्च करने होंगे और वहीं मुनाफा इससे कई गुना अधिक मिलता है।
खरीफ में ज्वार की फसल सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। ज्वार की किस्मों में एक कटाई से लेकर तीन-चार कटाईयां देने की क्षमता है। गर्मी के मौसम में उगाई गई ज्वार में पानी की कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि ज्वार के चारे में धुरिन नामक विषैले पदार्थ की मात्रा विशेषकर गर्मी के मौसम में अधिक हो जाती है। पशुओं के लिए इसका चारा पर्याप्त रूप से पौष्टिक होता है। ज्वार का हरा चारा, कड़वी तथा साइलेज तीनों ही रूपों में पशुओं के लिए उपयोगी है।
खरीफ में ज्वार की फसल सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। ज्वार की किस्मों में एक कटाई से लेकर तीन-चार कटाईयां देने की क्षमता है। गर्मी के मौसम में उगाई गई ज्वार में पानी की कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि ज्वार के चारे में धुरिन नामक विषैले पदार्थ की मात्रा विशेषकर गर्मी के मौसम में अधिक हो जाती है। पशुओं के लिए इसका चारा पर्याप्त रूप से पौष्टिक होता है। ज्वार का हरा चारा, कड़वी तथा साइलेज तीनों ही रूपों में पशुओं के लिए उपयोगी है।
खेत की तैयारी
इसकी खेती वैसे तो सभी पराक्र की मिट्टी में कि जा सकती है परन्तु दोमट, बलुई दोमट, सर्वोत्तम मानी गई है। ज्वार के लिए खेत को अच्छी तरह तैयार करना आवश्यक है। सिंचित इलाकों में दो बार गहरी जुताई करके पानी लगाने के बाद बत्तर आने पर दो जुताइयां करनी चाहिए।
बुवाई का समय
सिंचित इलाकों में ज्वार की फसल 20 मार्च से 1- जुलाई तक बो देनी चाहिए. जिन क्षेत्रों में सिंचाई उपलब्ध नहीं हैं वहां बरसात की फसल मानसून में पहला मौका मिलते ही बो देनी चाहिए। अनेक कटाई वाली किस्मों/संकर किस्मों की बीजाई अप्रैल के पहले पखवाड़े में करनी चाहिए। यदि सिंचाई व खेत उपलब्ध न हो तो बीजाई मई के पहले सप्ताह की जा सकती है।
चारे की विभिन्न किस्में
एक कटाई देने वाली किस्में–हरियाणा चरी 136, हरियाणा चारी 171 हरियाणा चरी 260, हरियाणा चरी 307, पी.ससी-9 अधिक कटाई वाली किस्में-मीठी सूडान (एस एस जी 59-३), एफ, एस एच 92079 (सफेद मोती) बीज एवं बीज की मात्रा यदि कहत भली प्रकार तैयार हो तो बुवाई सीडड्रील से 2.5 से 4 सेंमी गहराई पर एवं 25-30 सेंटीमीटर की दूरी पर लाइनों में करें. ज्वार की बीज दर प्रायः बीज के आकार पर निर्भर करती है। बीज की मात्रा 18 से 24 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से बीजाई करें। यदि खेत की तैयारी अच्छी प्रकार न हो सके तो छिटकाव विधि से बुवाई की जा सकती है जिसके लिए बीज की मात्रा में 15-20% वृद्धि आवश्यक है। अधिक कटाई वाली किस्में/संकर किस्मों के ली 8-10 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ के हिसाब से डालें।
खाद एवं उर्वरक
सिंचित इलाकों में इस फसल के लिए 80 किलोग्राम नाइट्रोजन व 30 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। सही तौर पर 175 किलोग्राम यूरिया और 190 किलोग्राम एस एस पी एक हैक्टर में डालना पर्याप्त रहता है। यूरिया की आधी मात्रा और एस एस पी की एक पूरी मात्रा बीजाई से पहले डालें तथा यूरिया की बची हुई आधी मात्रा बीजाई एक 30-35 में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन (112 किलोग्राम यूरिया) प्रति हैक्टर बीजाई से पहले डालें। अधिक कटाई देने वाली किस्मों से पहले व 30 किलो नाइट्रोजन प्रति हैक्टर हर कटाई के बाद सिंचाई उपरांत डालने से अधिक पैदवार मिलती है।
सिंचाई
वर्षा ऋतु में बोई गई फसल में आमतौर पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। मार्च व अप्रैल में बीजी गई फसल में पहली सिंचाई बीजाई के 15-20 दिन बाद तथा आगे की सिंचाई 10-15 दिन के अंतर पर करें. मई-जून में बीजी गई फसल में 10-15 दिन के बाद पहली सिंचाई करें तथा बाद में आवश्यकतानुसार करें। अधिक कटाई वाली किस्मों में हर कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करें. इससे फुटव जल्दी व अच्छा होगा।
खरपतवार नियंत्रण
ज्वार में खरपतवार की समस्या विशेष तौर पर वर्षाकालीन फसल में अधिक पाई जाती है। सामान्यतः गर्मियों में बीजी गई फसल में एक गोड़ाई पहली सिंचाई के बाद बत्तर आने पर पर करनी चाहिए। यदि खरपतवार की समस्या अधिक हो तो एट्राजीन का छिड़काव् करे। क्योंकि चारे की ज्वार में किसी भी प्रकार के रसायन के छिड़काव को बढ़ावा नहीं दिया जाता।
रोग एवं कीट नियंत्रण
चारे की फसल में छिड़काव् कम ही करना चाहिए तथा छिड़काव् के बाद 25-30 दिन तक फसल पशुओं को नहीं खिलानी चाहिए।
कटाई और एच.सी. एन. का प्रबंध
चारे की अधिक पैदावार व गुणवत्ता के लिए कटाई 50% सिट्टे निकलने के पश्चात करें. एच.सी.एन. ज्वार में एक जहरीला तत्व प्रदान करता अहि। अगर इसकी मात्रा 2000 पी.पी.एम्. से अधिक हो तो यह पशुओं के लिए हानिकारक हो सकता है। 35-40 दिन की फसल में एच.सी. एन की मात्रा अधिक होती है। लेकिन 40 दन के बाद इसकी मात्रा अधिक होती है। लेकिन 40 दिन से पहले नहीं काटना चाहिए। अगर कटाई 40 दिन में करनी अत्यंत आवश्यक हो तो कटे हुए चारे को पशुओं को खिलाने से पहले 2-3 घंटे तक खुली हवा में छोड़ डे ताकि एच.सी. एन. की मात्रा कुछ कम हो सके।
अधिक कटाई वाली किस्मों में हरे चारे की अधिक पैदवार के लिए पहली कटाई बीजाई के 50 से 55 दिनों के पश्चात एवं शेष सभी कटाईयां 35-49 दिनों के अंतराल पर करें। अगर पहली कटाई देर से की जाए तो सूखे चारे में वृद्धि होती है परन्तु हरे चारे की पैदवार व गुणवत्ता कम हो जाती है। अच्छे फुटाव के लिए फसल को भूमि से 8 -10 सेंटीमीटर की उंचाई पर से काटें।
बीज का बनना
दाने वाली फसल के लिए बीजाई 10 जुलाई तक रकें। इस समय बीजी गई फसल से दाने की पैदवार सबसे ज्यादा मिलती है। जल्दी मिलती है। जल्दी बिजी गई फसलों में मिज कीड़े का आक्रमण इतना अधिक होता है कि दाने का रस चूसने से पैदवार काफी घट जाती है।
उपज
चारे की उपज ज्वार की किस्म तथा कटाई की अवस्था पर काफी कुछ निर्भर करती हैं यदि उन्नत तरीकों से खेती की जाए तो एक कटाई वाली फसल से 250-400 क्विंटल व् अधिक कटाई वाली किस्मों से हरे चारे की उपज 500-700 किवंटल प्रति हैक्टर प्रातो हो सकते हैं।
अगर आप खेती करने की सोच रहे हैं तो ऐसे में आप ज्वार की खेती कर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं, यह फसल आपको अच्छी सेहत के साथ मोटा मुनाफा भी देगी।
ज्वार मुख्य रूप से खरीफ की एक प्रमुख मिलैट फसलों में से एक है। जिसे किसान भाई खाने के साथ-साथ चारे एवं दाने के रूप में उगाते हैं तथा ज्वार को मोटे अनाजों का राजा भी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश में ज्वार की फसल मुख्य रूप से चारे के लिये उगाई जाती है। ज्वार का इस्तेमाल चारे के रूप में किया जाता है। जानवरों को हरे चारे एंव सूखे चारे तथा साइलेज बनाकर खिलाया जाता है। इस प्रकार ज्वार जानवरों का महत्वपूर्ण एंव पौष्टिक चारा है। गेहूं की तरह ज्वार को भी आटे के रूप में प्रयोग करते हैं। ज्वार में शर्करा की काफी मात्रा पाई जाती है तथा ज्वार की अच्छी फसल के लिये मृदा का पी.एच. मान 5.5-8.5 होना चाहिये।
जलवायुः-ज्वार उष्ण जलवायु की फसल है परन्तु शीघ्र पकने वाली जातिया ठंडे प्रदेशों में भी गर्मीं के दिनों में उगाई जा सकती हैं। 25-30 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर उचित नमी की उपस्थिति में ज्वार की वृद्धि सबसे अच्छी होती है। फसल में बाली निकलते समय 30 डिग्री सेल्सियस सें अधिक तापक्रम, फसल के लिये हानिकारक होता है।
खेत का चुनाव तथा तैयारीः- बलुई दोमट अथवा ऐसी भूमि जहां जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो, ज्वार की खेती के लिये उपयुक्त होती है। मिटृी पलटने वाले हल से पहली जुताई तथा अन्य दो-तीन जुताई देशी हल से करके खेत को भाली भांति तैयार कर लेना चाहियें।
बुवाई का समयः-
खरीफ ज्वारः- ज्वार की बुवाई हेतु जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय अधिक उपयुक्त है।
रबी ज्वारः- रबी के मौसम में ज्वार की खेती महाराष्ट्र, कर्नाटक व आन्ध्रप्रदेश में की जाती है। यहां पर बुवाई का उपयुक्त समय अक्टूबर से नवम्बर तक है।
उन्नतशील प्रजातियां:- ज्वार की संकर किस्मों में सी.एस.एच.-1 से सी.एस.एच.-8 तक तथा उच्च उपज वाली किस्में सी.एस.वी.-1 से सी.एस.एच.-7 तथा उ.प्र. में मऊ टा-1, 2, वर्षा, सी.एस.वी.-13, 15 एंव संकर सी.एस.एच.-9, 14 तथा रबी चारे के लिये एम.35-1 तथा चारे वाली किस्में एम-35-1, पूसा चरी, राजस्थान चरी, एस.एस.जी.-888 मीठी सुडान उपयुक्त किस्म है।
बीज की मात्राः-दाने के खेत की बुआई के लिए किसान भाईयों को 9-12 किलोग्राम/प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है तथा चारे के खेत की बुवाई के लिये किसान भाईयों को 35-40 किलोग्राम/प्रति हेक्टेयर है।
बीजोपचारः-किसान भाईयों का बोने से पूर्व एक किग्रा0 बीज को एक प्रतिशत पारायुक्त रसायन या थीरम के 2.5 ग्राम से शोधित कर लेना चाहियें। जिससे अच्छा जमाव होता है एवं कंडुवा रोग नहीं लगता है। दीमक के प्रकोप से बचने हेतु 25 मि0लीटर प्रति किग्रा0 बीज की दर से क्लोरोपायरीफास दवा से शोधित करना चाहियें।
पंक्तियों एंव पौधों की दूरीः-ज्वार की फसल की बुआई किसान भाईयों को 45 सेमी0 लाइन से लाइन की दूरी पर हल के पीछे करनी चाहियें। पौधे से पौध की दूरी 15-20 सेमी0 होनी चाहिये।
उर्वरक एंव खाद प्रबन्धः-किसान भाईयों को उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना श्रेयस्कर होगा। उत्तम उपज के लिये संकर प्रजातियों के लिये नत्रजन 80 फॅास्फारेस 40 एवं पोटाश 20 किग्रा0 एवं अन्य प्रजातियों हेतु नत्रजन 40 फास्फारेस 20 एवं पोटाश 20 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिये। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फोस्फोरस एंव पोटाश की पूरी मात्रा खेत में बुवाई के समय कूंडों में बीज के नीचे डाल देनी चाहियें तथा नत्रजन का शेष भाग बुवाई के लगभग 30-35 दिन बाद खड़ी फसल में प्रयोग करना चाहियें।
सिंचाई प्रबन्धः-फसल में बाली निकलते समस और दाना भरते समय यदि खेत में नमी कम हो तो सिंचाई अवश्य कर दी जाए अन्यथा इसका उपज पर प्रतिकूल प्रभाव दिखाई पड़ता है।
खरपतवार नियन्त्रणः-ज्वार की फसल में किसान भाईयों को तीन सप्ताह बाद निराई एवं गुडाई कर देनी चाहियें। यदि खेत में पौधों की संख्या अधिक हो तो थिनिंग कर दूरी निश्चित कर ली जाय।
रसायन नियन्त्रण के लिये एट्राजिन 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के तुरन्त बाद 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव कर देना चाहियें।
कीट नियन्त्रणः- ज्वार की प्ररोह मक्खी (शूट फलाई):- यह घरेलू मक्खी से छोटे आकार की होती है। जिसका शिशु (मैगेट) जमाव के प्ररम्भ होते ही फसल को हानि पहुंचाता है। इसके उपचार हेतु मिथाइल ओडिमेटान 25 ई.सी. 1 लीटर अथवा मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिडकाव करें।
तनाछेदक कीटः- इस कीट की सुंडियां तनें में छेद करके अन्दर ही अन्दर खाती रहती है। जिससे बीज का गोभ सूख जाता है। इसके उपचार हेतु क्विनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. 1.50 लीटर को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।
ईयर हेड मिजः- प्रौढ मिज लाल रंग की होती है और यह पुष्प पत्र पर अण्डे देती है। लाल मैगेट्स दानों के अन्दर रहकर उसका रस चूस लेती है, जिससे दाने सूख जाते हैं। इसके उपचार के लिये किसान भाई इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1.5 लीटर अथवा कार्बराइल (50 प्रतिशत घूलनशील चूर्ण) 1.25 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें।
ईयर हेड कैटर पिलरः-इसकी गिडारें मुलायम दाने को खाकर नष्ट कर देती हैं तथा भुटृों में जाला बना देती है। इस रोग के उपचार के लिये इन्डोसल्फान 35 ई.सी का 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का घोल बनाकर छिडकाव करें।
ज्वार का माइटः-यह बहुत ही छोटा होता है, जो पत्तियों की निचली सतह पर जाले बुनकर उन्ही के अन्दर रहकर रस चूसता रहता है। ग्रसित पत्ति लाल रंग की दिखाई पडनें लगती है तथा सूख जाती है। इस रोग के रोकथाम के लिये किसान भाईयों को डाइमेथोएट 30 ई.सी. का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा डायजिनान 20 ई.सी का 1.5 लीटर से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर छिडकाव करें।
फसल की कटाईः-ज्वार के पौधे 110 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते है। जब पौधों पर लगी पत्तिया सूखी दिखाई देने लगे उस दौरान पौधों की कटाई कर लें। इसके फसल की कटाई दो से तीन बार तक की जा सकती है। ज्वार के पौधों को भूमि की सतह के पास से काटा जाता है तथा फसल कटाई के पश्चात् दानों को अलग कर लिया जाता है, और उन्हें ठीक से सूखा लिया जाता है। इसके बाद मशीन के माध्यम से दानों को अलग कर लें।
फसल की पैदावार और लाभः-एक हेक्टेयर के खेत से हरे चारे के रूप में 600 से 700 क्विंटल तक फसल प्राप्त हो जाती है, तथा सूखे चारे के रूप में 100 से 150 क्विंटल का उत्पादन मिल जाता है जिसमे से 25 क्विंटल तक ज्वार के दाने मिल जाते है। ज्वार के दानों का बाजारी भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल होता है। इस हिसाब से किसान भाई ज्वार की एक बार की फसल से 60 हजार रूपए तक की कमाई प्रति हेक्टेयर के खेत से कर सकते हैं।
नॉर्थ इंडिया में अपनी उपयुक्त जलवायु के कारण बकरी पालन एक अत्यधिक लाभदायक उद्यम है जो लोकप्रियता प्राप्त कर रहा है। बकरियां अर्ध-गहन जानवर हैं, जिन्हें अन्य पशुओं की तुलना में कम देखभाल की आवश्यकता होती है और यह आय का एक अच्छा स्रोत प्रदान करती हैं। आइए नीचे नॉर्थ इंडिया में बकरी पालन के बारे में अधिक जानकारी देखें।
असम में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की बकरी की नस्लें
असम में बकरियों की कई नस्लें हैं जो स्थानीय जलवायु और वनस्पति के अनुकूल हैं। असम में सबसे लोकप्रिय नस्ल ब्लैक बंगाल बकरी है, जिसे उत्तर-पूर्वी बंगाल बकरी के रूप में भी जाना जाता है। ये छोटी लेकिन अत्यधिक उर्वर बकरियां प्रति कूड़े में कई बच्चे पैदा कर सकती हैं।
असम में एक अन्य नस्ल बीटल बकरी है, जो पाकिस्तान से उत्पन्न हुई थी लेकिन पूरे भारत में व्यापक रूप से पेश की गई है। इन बड़े शरीर वाली बकरियों में विशिष्ट लाल कोट होता है और मुख्य रूप से उनके मांस उत्पादन के लिए पाला जाता है।
सिरोही बकरी मूल रूप से राजस्थान की है।
विभिन्न स्थितियों और प्रतिरोधबीमारी। आमतौर पर इस नस्ल का इस्तेमाल किया जाता है,मांस और दूध उत्पादन दोनों।
ब्लैकबंगाल
BLACK BENGAL GOAT
ब्लैक बंगाल बकरी की एक नस्ल हैआमतौर पर काले रंग की होती है, यह भूरे, सफेद या भूरे रंग में भी पाई जाती है।
बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल , बिहार , असम , और ओडिशा में पाई जाती।
ब्लैक बंगाल बकरी आकार में छोटी है लेकिन इसकी शरीर की संरचना तंग है।इसके सींग छोटे होते हैं और पैर छोटे होते हैं।
एक वयस्क नर बकरी का वजन लगभग 25 से 30 किग्रा और मादा का वजन 20 से 25 किग्रा होता है।यह दूध उत्पादन में खराब है।
छोटे होने के कारण अव्यवसायी के साथ साथ आम उपभोक्ता भी खरीद लेते हैं, इसके मांस प्रोटीन युक्त एवं कम फाइबर होने के कारण लोनों का पहला पसंद है।
अनुवांशिक गुणबत्ता के कारण ब्लैक बंगाल की रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक है, और कई गंभीर बीमारी के प्रति रेसिस्टेंस है। आसानी से वातावरण में ढल जातें है।
धिकांश अन्य नस्लों की तुलना में ब्लैक बंगाल बकरियां पहले की उम्र में यौन परिपक्वता प्राप्त करती हैं।
मादा बकरी साल में दो बार गर्भवती होती है और एक से तीन बच्चों को जन्म देती है। कम समय में हीं बिक्री के लिए तैयार हो जाती है।
जमनापारी
रंग में एक बड़ी भिन्नता है लेकिन ठेठ जमनापारी गर्दन और सिर पर तन के पैच के साथ सफेद है।
उनके सिर में अत्यधिक उत्तल नाक होती है, जो उन्हें तोते की तरह दिखती है। उनके पास लंबे समय तक सपाट कान हैं जो लगभग 25 सेमी लंबे हैं।
दोनों लिंगों में सींग हैं ।
अदर में गोल, शंक्वाकार टीट्स हैं और यह अच्छी तरह से विकसित होती है ।
उनके पास असामान्य रूप से लंबे पैर भी हैं।
जमनापारी नर का वजन 120 किलोग्राम तक हो सकता है, जबकि मादा लगभग 90 किलोग्राम तक पहुंच सकती है।
प्रति दिन औसत लैक्टेशन पैदावार दो किलोग्राम से थोड़ी कम पाई गई है।
जमनापारी मांस को कोलेस्ट्रॉल में कम कहा जाता है।पहली गर्भाधान की औसत आयु 18 महीने है।
जमनापारी
बीटल
बीटल बकरी पंजाब क्षेत्र की भारत और पाकिस्तान नस्ल है दूध और मांस उत्पादन।
यह मालाबारी बकरी के समान है ।
यह शरीर के बड़े आकार के साथ एक अच्छा दूध देने वाला माना जाता है, कान सपाट लंबे कर्ल किए हुए और ड्रोपिंग होते हैं।
इन बकरियों की त्वचा को उच्च गुणवत्ता के कारण माना जाता है क्योंकि इसके बड़े आकार और ठीक चमड़े जैसे कि कपड़े, जूते और दस्ताने बनाने के लिए चमड़ी का उत्पादन होता है।
उपमहाद्वीप भर में स्थानीय बकरियों के सुधार के लिए बीटल बकरियों का व्यापक रूप से उपयोग किया गया है।
इन बकरियों को भी स्टाल खिलाने के लिए अनुकूलित किया जाता है, इस प्रकार गहन बकरी पालन के लिए पसंद किया जाता है।
बारबरी
ये प्रायः भारत और पाकिस्तान में एक व्यापक क्षेत्र में पाले जाने बाले नस्ल है।
बरबेरी कॉम्पैक्ट रूप का एक छोटा बकरा है।
सिर छोटा और साफ-सुथरा होता है, जिसमें ऊपर की ओर छोटे कान और छोटे सींग होते हैं।
कोट छोटा है और आमतौर पर भूरा लाल के साथ सफेद रंग का होता है; ठोस रंग भी होते हैं।
बारबरी दोहरे उद्देश्य वाली नस्ल है, जिसे मांस और दूध दोनों के लिए पाला जाता है , और इसे भारतीय परिस्थितियों के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित है।
यह एक मौसमी ब्रीडर है और इसका इस्तेमाल सघन बकरी पालन के लिए किया जाता है। लगभग 150 दिनों के दुद्ध निकालना में दूध की उपज लगभग 107 है l
सिरोही
इस बकरी को खासतौर पर मीट के लिए पाला जाता है।
हालांकि यह दूध भी ठीक ठाक देती है।
आमतौर पर सिरोही बकरी आधा लीटर से लेकर 700 एमएल तक दूध देती है।
इसकी दो बड़ी खासियत हैं एक तो ये गर्म मौसम को आराम से झेल लेती हैं और दूसरे यह बढ़ती बहुत तेजी से हैं।
इसकी एक और खासियत ये है कि इस बकरी के विकास के लिए इसे चारागाह वगैरा में ले जाने की जरूरत बिल्कुल नहीं है।
यह बकरी फार्म में ही अच्छे से पल बढ़ सकती है।
आमतौर पर एक बकरी का वजन 33 किलो और बकरे का वजन 30 किलो तक होता है।
इस बकरी की बॉडी पर गोल भूर रेंग के धब्बे बने होते हैं। यह पूरे शरीर पर फैले होते हैं।
इसके कान बड़े बड़े होते हैं और सींघ हल्के से कर्व वाले होते हैं।
इनकी हाइट मीडियम होती है। सिरोही बकरी साल में दो बार बच्चों को जन्म देती है।
आमतौर पर दो बच्चों को जन्म देती है।
सिरोही
सिरोही बकरी 18 से 20 माह की उम्र के बाद बच्चे देना शुरू कर देती है।
नए बच्चों का वजन 2 से 3 किलो होता है।
आपको राजस्थान की लोकल मार्केट में यह बकरी मिल जाएगी। बेहतर होगा आप इसे खरीदने के लिए सिरोही जिले के बाजार का ही रुख करें।
वैसे तो इनकी कीमत इस बात पर डिपेंड करती है कि बाजार में कितनी बकरियां गर आप सही ढंग से चारा खिलाएंगे तो महज 8 महीने में यह बकरियां 30 किलो तक वजनी हो जाती हैं।
यही चीज इस बकरी को औरों के मुकाबले ज्यादा प्रॉफिटेबल बनाती हैं।
आप इसे पास की मंडी में ले जाकर बेच सकते हैं।बिकने के लिए आई हुई हैं, मगर मोटे तौर पर बकरी की कीमत 350 रुपये प्रतिकिलो और बकरे की कीमत 400 रुपये प्रतिकिलो होती है।
सुरती
सुरती बकरी
भारत में घरेलू बकरियों की एक महत्वपूर्ण नस्ल है।
यह एक डेयरी बकरी की नस्ल है और मुख्य रूप से दूध उत्पादन के लिए उठाया जाता है।
सुरती बकरी भारत में सबसे अच्छी डेयरी बकरी नस्लों में से एक है। नस्ल का नाम भारत के गुजरात राज्य में ‘ सूरत ‘ नामक स्थान से निकला है ।
सुरती
सुरती बकरियां छोटे आकार के मध्यम आकार के जानवर होते हैं।
उनका कोट मुख्य रूप से छोटे और चमकदार बालों के साथ सफेद रंग का होता है।
उनके पास मध्यम आकार के छोड़ने वाले कान हैं। उनका माथा प्रमुख है और चेहरा प्रोफ़ाइल थोड़ा उभरा हुआ है।
दोनों रुपये और आमतौर पर मध्यम आकार के सींग होते हैं।
उनके सींग ऊपर और पीछे की ओर निर्देशित होते हैं।
उनके पास अपेक्षाकृत कम पैर हैं, और वे आमतौर पर लंबी दूरी तक चलने में असमर्थ हैं।
सुरती हिरन की तुलना में बहुत बड़ी हैं। औसत वजन 32 किलोग्राम और हिरन का औसत शरीर का वजन लगभग 30 किलोग्राम है।
बकरियोंकेलिएआवश्यकस्थान
बकरियों के शरीर के आकार और वजन में वृद्धि के अनुसार, उन्हें अधिक स्थान की आवश्यकता होती है।
8 मीटर * 1.8 मीटर * 2.5 मीटर (5.5 फीट * 5.5 फीट * 8.5 फीट) का एक घर 10 छोटी बकरियों के आवास के लिए पर्याप्त है।
प्रत्येक वयस्क बकरी को लगभग75 मीटर * 4.5 मीटर * 4.8 मीटर आवास स्थान की आवश्यकता होती है।
हर बड़ी बकरी को4 मीटर * 1.8 मीटर हाउसिंग स्पेस चाहिए।
यह बेहतर होगा, यदि आप नर्सिंग और गर्भवती बकरियों को अलग-अलग रख सकते हैं।
आप अपने खेत में बकरी की संख्या के अनुसार बकरी के घर का क्षेत्र बढ़ा या घटा सकते हैं। बकरियों के लिए आवश्यक स्थान
लेकिन ध्यान रखें कि, हर बकरी को उचित बढ़ते और बेहतर उत्पादन के लिए अपने आवश्यक स्थान की आवश्यकता होती है।
अपनी बकरियों के लिए घर बनाते समय, हमेशा अपनी बकरियों के आराम पर जोर दें।
सुनिश्चित करें कि, आपकी बकरियां अपने घर के अंदर आराम से रहे ।
घर उन्हें प्रतिकूल मौसम मुक्त रखने के लिए पर्याप्त उपयुक्त है।
बिशेष जानकारी के लिए आप ग्रामश्री किसान एप्प के माध्यम से विषेशज्ञों की सलाह लें।
झुंड की दक्षता और श्रम की दक्षता बढ़ाता है।
आम तौर पर भेड़ और बकरियों को विस्तृत आवास सुविधाओं की आवश्यकता नहीं होती है,
लेकिन न्यूनतम प्रावधान निश्चित रूप से उत्पादकता में वृद्धि करेंगे, विशेष रूप से खराब मौसम की स्थिति और पूर्वानुमान के खिलाफ सुरक्षा।
अक्सर, झुंडों को निष्पक्ष मौसम के दौरान खुले में रखा जाता है और कुछ अस्थायी आश्रयों को मानसून और सर्दियों में उपयोग किया जाता है।
भेड़ को आर्थिक रूप से खेत प्रणाली के तहत पाला जा सकता है।
भेड़ और बकरियों के लिए भवन इकाइयों की आवश्यकताएं कमोबेश एक समान हैं, सिवाय इसके कि दूध के लिए पाली जाने वाली बकरियों के लिए अतिरिक्त इमारतों की आवश्यकता होती है।
शेड साइट को आसानी से स्वीकार्य और विशाल, सूखा, ऊंचा, अच्छी तरह से सूखा और मजबूत हवाओं से संरक्षित किया जाना चाहिए। पूर्व-पश्चिम अभिविन्यास कूलर वातावरण सुनिश्चित करता है।
एक “लीन-टू” प्रकार का शेड, जो मौजूदा इमारत के किनारे पर स्थित है, इमारत का सबसे सस्ता रूप है।
पारंपरिक / स्टॉल-फीड शेड की तुलना में ढीले आवास अधिक लाभप्रद हैं
क्योंकि यह अर्ध-शुष्क क्षेत्रों और बड़े आकार के झुंडों के लिए उपयुक्त है, इसमें कम खर्च शामिल है, यह जानवरों को अधिक आराम प्रदान करता है,
यह कम श्रम-गहन है, और यह आंदोलन की स्वतंत्रता प्रदान करता है और व्यायाम का लाभ देता है।
भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में झुके हुए आवास आम हैं।
आवास के लिए आवश्यकता एवं अन्य खर्च
आवास के लिए प्रति बकरी की आवश्यकता
10 वर्ग फीट
आवास के लिए प्रति बकरे की आवश्यकता
15 वर्ग फीट
प्रति बच्चे के लिए आवास की आवश्यकता
5 वर्ग फीट
निर्माण की लागत
180 रुपये प्रति वर्ग फीट
हरे चारे की लागत
एक सीजन में 5000 रुपये प्रति एकड़
उपकरण की लागत
20 रुपये प्रति वयस्क बकरी
बकरे के लिए आवश्यक फ़ीड को जमा करें (दो महीने के लिए)
8 किलो प्रति माह
वयस्क के लिए फ़ीड की आवश्यकता
7 किलो प्रति माह
बच्चों के लिए आवश्यक एक महीने के लिए फ़ीड
प्रत्येक बच्चे को 4 किग्रा
श्रम की आवश्यकता
1
श्रम लागत
6000 रुपये प्रति माह
चारा खरीदने की कुल लागत
16 रुपये प्रति कि.ग्रा
बीमा
बकरियों के कुल मूल्य का 5%
पशु चिकित्सा सहायता की लागत
50 रुपये प्रति वर्ष (प्रत्येक वयस्क बकरी पर)
स्थायी बकरी-घर पक्की ईंट से बनाया जाता है।
जिस स्थान पर लकड़ी की बहुतायत हो, वहाँ लकड़ी से भी स्थायी बकरी-घर बनाया जा सकता है।
घर इस प्रकार बनाएं कि उसमें साफ हवा और सूरज की रोशनी पहूँचने की पुरी-पुरी गुंजाइश रहे।
मकान का आकार-प्रकार बकरियों की संख्या के अनुसार निर्धारित किया जाता है।
आम तौर पर दो बकरियों के लिए 4 फीट चौड़ी और साढ़े तीन फीट लम्बी जगह काफी समझी जाती है।
बड़े पैमाने पर बकरी-पालन करने के लिए प्रत्येक घर में दो बकरियों का एक बाड़ा या बथान बनाना पड़ता है।
बकरियों की संख्या के अनुसार बथान की संख्या घटाई-बढ़ाई जा सकती है।
प्रत्येक बथान में बकरियों को आहार देने के लिए लकड़ी का पटरा लगा देना सस्ता होगा। बथान में बकरियों के आराम करने या उठने-बैठने के लिए पर्याप्त जगह रखनी चाहिए।
बथान कतारों में बनाए जाते हैं। हर बथान में बकरियों के बांधने का प्रबंध रहता है। बथानों की दो कतारों के बीच सुविधापूर्वक आने-जाने का रास्ता छोड़ दिया जाता है।
बीच में खाने के बर्तन और घास-पात रखने की जगह भी बना दी जाती है। दीवार के ऊपर थोड़े भाग तार की जाली लगा दी जाती है।
बथानों की कतार के पीछे नाली बना देना भी आवश्यक होता है।
स्थाई बकरी-घर बनाने वालों को प्रजनन के लिए बकरा भी रखना पड़ता है।
बकरा को बराबर अलग रखना चाहिए, क्योंकि उससे तेज गंध आती है। इस गंध के कारण कभी-कभार दूध और दूसरे समान से भी गंध आने लगती है।
एक बकरा के लिए आठ वर्ग फीट के आकार घर बनाना चाहिए।
घर की सफाई
घर चाहे स्थायी हो या अस्थायी, उसकी प्रतिदिन सफाई आवश्यक है।
अगर फर्श पक्का हो तो प्रतिदिन पानी से धोना चाहिए।
अगर कच्चा फर्श हो तो उसे ठोक-पीट कर मजबूज बना लेना चाहिए और प्रतिदिन साफ करना चाहिए।
बकरी-घर की नालियों और सड़कों की सफाई भी अच्छी तरह होनी चाहिए।
समय-समय पर डेटोल, सेवलौन, फिनाइल या ऐसी ही दूसरी दवा से फर्श और बकरी-घर के अन्दर के हर भाग को रोगाणुनाशित भी कर लेना चाहिए।
फेनोल (कार्बोलिक एसिड), लाइम (कैल्शियम ऑक्साइड, त्वरित चूना), कास्टिक सोडा (सोडियम हाइड्रोक्साइड), बोरिक अम्ल, ब्लीचिंग पाउडर (चूने का क्लोराइड) इसका उपयोग जानवरों के घरों की कीटाणुशोधन के लिए किया जा सकता है जब कोई छूत की बीमारी हुई हो और पानी की आपूर्ति की कीटाणुशोधन के लिए।
बकरियों का आहार प्रबंधन
यह ज्यादातर पूछे जाने वाले बकरी पालन में से एक है, जो कि ज्यादातर बकरी किसान पूछते हैं।
दरअसल बकरियों के लिए चारा इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें कैसे पाला जाता है।
यदि उन्हें स्वतंत्र रूप से चारा देने की अनुमति नहीं है तो बकरियों को घास की आवश्यकता होगी।
हेय को एक बकरी के आहार का मुख्य हिस्सा माना जाता है अगर इसे फोरेज करने की अनुमति नहीं है।
बकरी के भोजन के रूप में अन्य सामान्य चीजों में फल, मातम, अनाज, सूखे फल, चफ़े, सब्जियां , रसोई के स्क्रैप आदि शामिल हैं।
बेकिंग सोडा, चुकंदर का गूदा, काले तेल सूरजमुखी के बीज, ढीले खनिज, सेब साइडर सिरका, केल्प भोजन आदि।
उचित वृद्धि के लिए बकरियों को अनाज की आवश्यकता होती है। अनाज बकरियों को अतिरिक्त प्रोटीन, विटामिन और खनिज प्रदान करते हैं।
बकरियों को कई अलग-अलग तरीकों से अनाज दिया जा सकता है और वास्तव में बकरियों के लिए चारे के रूप में विभिन्न प्रकार के अनाज उपलब्ध हैं।
आमतौर पर बकरियों को साबुत या अनप्रोसेस्ड, पेलेटेड, रोल्ड और टेक्सचर्ड अनाज दिए जाते हैं।
भेड़औरबकरियोंकेलिएउपयुक्तचाराफसलें
ल्यूसर्न,
लोबिया,
स्टाइलो,
घास का चारा,
चारा मक्का,
नीम,
चावल,
गेहूँ,
मूंगफली का केक
मेमनों का देखभाल
मेमनों / बच्चों को दूध पिलाना (तीन महीने में जन्म) जन्म के तुरंत बाद युवाओं को कोलोस्ट्रम खिलाएं।
जन्म के 3 दिनों तक दूध के लगातार उपयोग के लिए 2-3 दिनों के लिए अलग रखें। 3 दिनों के बाद और दिन में 2 से 3 बार दूध के साथ भेड़ / बच्चों को दूध पिलाने के लिए। मेमनों का देखभाल
लगभग 2 सप्ताह की आयु में युवाओं को मुलायम घास खाने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। एक महीने की उम्र में युवाओं को कोसेंट्रेट प्रदान किया जाना चाहिए।
कोलोस्ट्रमखिलाना
बच्चे को पहले तीन या चार दिनों के लिए उसके माँ का दूध फीड करवाना चाहिए, ताकि उन्हें कोलोस्ट्रम की अच्छी मात्रा मिल सके।
बच्चे के नुकसान को सीमित करने में कोलोस्ट्रम फीडिंग एक मुख्य कारक है। गाय कोलोस्ट्रम भी बच्चों के लिए अच्छा है।
कोलोस्ट्रम 100 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम जीवित वजन की दर से दिया जाता है। कोलोस्ट्रम खिलाना
बेहतर गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए रासायनिक रूप से उपचारित कोलोस्ट्रम को ठंडे स्थान पर रखा जाता है।
बेहतर गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए रासायनिक रूप से उपचारित कोलोस्ट्रम को ठंडे स्थान पर रखा जाता है।
छोटेबच्चेकोखिलाना (क्रिपफ़ीड)
यह क्रिप फ़ीड एक महीने की उम्र से और 2-3 महीने की उम्र तक शुरू किया जा सकता है।
क्रिप फ़ीड खिलाने का मुख्य उद्देश्य उनके तेजी से विकास के लिए अधिक पोषक तत्व देना है। छोटे बच्चे को खिलाना (क्रिप फ़ीड)
मेमनों / बच्चों को दी जाने वाली सामान्य मात्रा 50 – 100 ग्राम / पशु / दिन है।
इसमें 22 फीसदी प्रोटीन होना चाहिए।
आदर्शक्रिपफ़ीडकीसंरचना
मक्का – 40%
जमीन अखरोट केक -30%
गेहूं का चोकर – 10%
खराब चावल की भूसी – 13%
गुड़ – 5% आदर्श क्रिप फ़ीड की संरचना
खनिज मिश्रण- 2%
नमक – 1% विटामिन ए, बी 2 और डी 3 ।
तीनमहीनेसेबारहमहीनेकीउम्रतक
प्रति दिन लगभग 8 घंटे तक चरना चाहिए।
16-18 प्रतिशत प्रोटीन के साथ कंसन्ट्रेट मिश्रण @ 100 – 200 ग्राम / पशु / दिन की अनुपूरक।
गर्मियों के महीनों में सूखा चारा।6.
वयस्कपशु
यदि चारागाह की उपलब्धता अच्छी है, तो कंसन्ट्रेट मिश्रण को पूरक करने की आवश्यकता नहीं है।
खराब चराई की स्थिति में जानवरों को उम्र, गर्भावस्था और दुद्ध निकालना के आधार पर ध्यान कंसन्ट्रेट मिश्रण @ 150 – 350 ग्राम सांद्रता / पशु / दिन के साथ पूरक किया जा सकता है।
वयस्क फ़ीड में उपयोग किए जाने वाले केंद्रित मिश्रण का सुपाच्य क्रूड प्रोटीन (CP) स्तर 12 प्रतिशत है।
बारबरी
ये प्रायः भारत और पाकिस्तान में एक व्यापक क्षेत्र में पाले जाने बाले नस्ल है।
बरबेरी कॉम्पैक्ट रूप का एक छोटा बकरा है।
सिर छोटा और साफ-सुथरा होता है, जिसमें ऊपर की ओर छोटे कान और छोटे सींग होते हैं।
कोट छोटा है और आमतौर पर भूरा लाल के साथ सफेद रंग का होता है; ठोस रंग भी होते हैं।
बारबरी दोहरे उद्देश्य वाली नस्ल है, जिसे मांस और दूध दोनों के लिए पाला जाता है , और इसे भारतीय परिस्थितियों के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित है।
यह एक मौसमी ब्रीडर है और इसका इस्तेमाल सघन बकरी पालन के लिए किया जाता है। लगभग 150 दिनों के दुद्ध निकालना में दूध की उपज लगभग 107 है l
सिरोही
इस बकरी को खासतौर पर मीट के लिए पाला जाता है।
हालांकि यह दूध भी ठीक ठाक देती है।
आमतौर पर सिरोही बकरी आधा लीटर से लेकर 700 एमएल तक दूध देती है।
इसकी दो बड़ी खासियत हैं एक तो ये गर्म मौसम को आराम से झेल लेती हैं और दूसरे यह बढ़ती बहुत तेजी से हैं।
इसकी एक और खासियत ये है कि इस बकरी के विकास के लिए इसे चारागाह वगैरा में ले जाने की जरूरत बिल्कुल नहीं है।
यह बकरी फार्म में ही अच्छे से पल बढ़ सकती है।
आमतौर पर एक बकरी का वजन 33 किलो और बकरे का वजन 30 किलो तक होता है।
इस बकरी की बॉडी पर गोल भूर रेंग के धब्बे बने होते हैं। यह पूरे शरीर पर फैले होते हैं।
इसके कान बड़े बड़े होते हैं और सींघ हल्के से कर्व वाले होते हैं।
इनकी हाइट मीडियम होती है। सिरोही बकरी साल में दो बार बच्चों को जन्म देती है।
आमतौर पर दो बच्चों को जन्म देती है।
सिरोही
सिरोही बकरी 18 से 20 माह की उम्र के बाद बच्चे देना शुरू कर देती है।
नए बच्चों का वजन 2 से 3 किलो होता है।
आपको राजस्थान की लोकल मार्केट में यह बकरी मिल जाएगी। बेहतर होगा आप इसे खरीदने के लिए सिरोही जिले के बाजार का ही रुख करें।
वैसे तो इनकी कीमत इस बात पर डिपेंड करती है कि बाजार में कितनी बकरियां गर आप सही ढंग से चारा खिलाएंगे तो महज 8 महीने में यह बकरियां 30 किलो तक वजनी हो जाती हैं।
यही चीज इस बकरी को औरों के मुकाबले ज्यादा प्रॉफिटेबल बनाती हैं।
आप इसे पास की मंडी में ले जाकर बेच सकते हैं।बिकने के लिए आई हुई हैं, मगर मोटे तौर पर बकरी की कीमत 350 रुपये प्रतिकिलो और बकरे की कीमत 400 रुपये प्रतिकिलो होती है।
सुरती
सुरती बकरी भारत में घरेलू बकरियों की एक महत्वपूर्ण नस्ल है।
यह एक डेयरी बकरी की नस्ल है और मुख्य रूप से दूध उत्पादन के लिए उठाया जाता है।
सुरती बकरी भारत में सबसे अच्छी डेयरी बकरी नस्लों में से एक है। नस्ल का नाम भारत के गुजरात राज्य में ‘ सूरत ‘ नामक स्थान से निकला है ।
सुरती
सुरती बकरियां छोटे आकार के मध्यम आकार के जानवर होते हैं।
उनका कोट मुख्य रूप से छोटे और चमकदार बालों के साथ सफेद रंग का होता है।
उनके पास मध्यम आकार के छोड़ने वाले कान हैं। उनका माथा प्रमुख है और चेहरा प्रोफ़ाइल थोड़ा उभरा हुआ है।
दोनों रुपये और आमतौर पर मध्यम आकार के सींग होते हैं।
उनके सींग ऊपर और पीछे की ओर निर्देशित होते हैं।
उनके पास अपेक्षाकृत कम पैर हैं, और वे आमतौर पर लंबी दूरी तक चलने में असमर्थ हैं।
सुरती हिरन की तुलना में बहुत बड़ी हैं। औसत वजन 32 किलोग्राम और हिरन का औसत शरीर का वजन लगभग 30 किलोग्राम है।
मालाबारी
केरल के मालाबार जिलों में प्रतिबंधित किया जाता है, और कभी-कभी उन्हें टेलरिचरी बकरियां कहा जाता है।
वे ज्यादातर मांस के लिए पाले जाते हैं, लेकिन दूध का उत्पादन भी करते हैं। महिलाओं का वजन औसतन68 किग्रा होता है, जबकि पुरुषों का वज़न 41.20 किग्रा होता है,
और उनके कोट सफ़ेद, काले या पाईबाल्ड होते हैं।
हालाँकि वे बीटल बकरी के समान हैं , मालाबारी बकरियों का वजन अधिक होता है, कान और पैर कम होते हैं, और बड़े अंडकोष होते हैं।
मालाबारी
बोअर बकरियों के साथ मालाबारी बकरियों को पार करने का एक प्रयास था , लेकिन यह प्रथा विवादास्पद है।
चिगूबकरी
उत्तर प्रदेश के उत्तर में और भारत में हिमाचल प्रदेश के उत्तर- पूर्व में पाई जाने वाली चिगू बकरी की नस्ल का उपयोग मांस और कश्मीरी ऊन के उत्पादन के लिए किया जाता है ।
कोट आमतौर पर सफेद होता है, जिसे भूरा लाल रंग है। दोनों लिंगों में लंबे मुड़ सींग होते हैं।
. चिगू बकरी
पुरुषों के शरीर का वजन लगभग 40 किलोग्राम होता है, जबकि महिलाओं के शरीर का वजन लगभग 25 किलोग्राम होता है।
रचना चनथांगी के समान है। 3500 से 5000 मीटर की ऊँचाई के साथ पर्वतीय पर्वतमाला में रहते हैं। यह क्षेत्र ज्यादातर ठंडा और शुष्क है।
चांगथांगीयालद्दाखपश्मीना
कश्मीरी बकरी की यह नस्ल एक मोटी, गर्म अंडरकोट उगाती है जो कश्मीर पश्मीना ऊन का स्रोत है – फाइबर की मोटाई में 12-15 माइक्रोन के बीच दुनिया का सबसे अच्छा कश्मीरी माप है।
इन बकरियों को आम तौर पर पालतू बनाया जाता है और इन्हें खानाबदोश समुदायों द्वारा पाला जाता है जिन्हें ग्रेटर लद्दाख के चांगथांग क्षेत्र में चांगपा कहा जाता है। चांगपा समुदाय उत्तरी भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर में बड़े बौद्ध द्रोप्पा समुदाय का एक उप-संप्रदाय है ।
चांगथांगी या लद्दाख पश्मीना
वे लद्दाख में घास पर रहते हैं , जहां तापमान -20 ° C (−4.00 ° F ) तक कम हो जाता है ।
ये बकरियाँ कश्मीर की प्रसिद्ध पश्मीना शॉल के लिए ऊन प्रदान करती हैं । पश्मीना ऊन से बने शॉल बहुत महीन माने जाते हैं, और दुनिया भर में निर्यात किए जाते हैं।
चांगथांगी बकरियों ने चांगथांग, लेह और लद्दाख क्षेत्र की खराब अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया है जहां ऊन का उत्पादन प्रति वर्ष $ 8 मिलियन अधिक होता है।
जखराना
यह दिखने में बीटल बकरी से काफी मिलता-जुलता है, लेकिन जकराना बकरियां लंबी होती हैं।
उनके कोट का रंग कानों पर सफेद धब्बे और थूथन के साथ काला है।
उनका चेहरा सीधे उभरे हुए माथे के साथ है।
उनके कोट पर छोटे और चमकदार बाल हैं, छोटे सींग होते हैं।
उनके सींग छोटे, स्टंपयुक्त होते हैं जो ऊपर और पीछे की ओर निर्देशित होते हैं।जखराना
जखराना बकरियों के कान पत्तेदार और गिरते हैं। और उनके कान लंबाई में मध्यम हैं।
जखराना की उडद आकार में बड़ी होती है और लंबे शंक्वाकार टीलों के साथ अच्छी तरह से विकसित होती है।
वयस्क हिरन की औसत शरीर की ऊंचाई 84 सेमी है, और करता है के लिए 77 सेमी। हिरन का वजन औसतन 55 किलोग्राम होता है।
और का औसत शरीर का वजन लगभग 45 किलो है।
अच्छेनस्लएवंस्वस्थबकरियांकहाँसेखरीदें ?
अपने व्यवसाय के अनुसार नस्ल का चुनाव करें।
पशु हमेसा अच्छे ब्रीडर से लें जो जैव सुरक्षा के निर्देर्शो का शख्ती से अनुपालन करता हो।
और सभी भारतीय मानकों से पूर्ण हो।
ट्रासपोट ऑफ़ एनिमल रूल्स , २००१ का पालन करें।
प्रवेन्शन ऑफ़ एनिमल क्रुएल्टी टू एनिमल एक्ट १९६० का पालन करें।
नए एनिमल को एक महीने क्वारंटाइन में रखें।
नस्ल का चुनाव, खरीद एवं प्रशिक्षण हेतु ग्रामश्री किसान एप्प के माध्यम से संपर्क करें
बकरी और भेड़ फार्म के लिए आवास प्रबंधन
बकरी पालन व्यवसाय के लिए उपयुक्त बकरी आवास या आश्रय बहुत महत्वपूर्ण है ।
क्योंकि बकरियों को रात में भी रहने, सुरक्षा के लिए अन्य घरेलू पशुओं की तरह घर की आवश्यकता होती है, जिससे उन्हें प्रतिकूल जलवायु, ठंड, धूप आदि से बचाया जा सके।
कुछ लोग अपनी बकरियों को अन्य घरेलू पशुओं जैसे गाय, भेड़ आदि के साथ रखते थे। यहां तक कि कुछ क्षेत्रों में, लोग अपनी बकरियों को पेड़ों के नीचे रखते थे।
लेकिन अगर आप एक लाभदायक वाणिज्यिक बकरी फार्म स्थापित करना चाहते हैं , तो आपको अपनी बकरियों के लिए एक उपयुक्त घर बनाना होगा।
बकरी घर बनाने के लिए एक सूखे और उच्च स्थान का चयन करने का प्रयास करें।
सुनिश्चित करें कि, बकरियों को बाढ़ से सुरक्षित रखने के लिए चयनित बकरी आवास क्षेत्र पर्याप्त है।
आपको घर के फर्श को हमेशा सूखा रखना होगा।
हमेशा घर के अंदर प्रकाश और हवा के विशाल पालन को सुनिश्चित करें।
घर को इस तरह से बनाएं ताकि यह तापमान और नमी को नियंत्रित करने के लिए बहुत उपयुक्त हो जाए।
घर को हमेशा भीगने से मुक्त रखें।
क्योंकि भिगोना स्थिति विभिन्न रोगों के लिए जिम्मेदार है।
घर के अंदर कभी भी बारिश का पानी न घुसने दें। घर को मजबूत और आरामदायक होना चाहिए।
घर के अंदर पर्याप्त जगह रखें।
घर में नियमित रूप से अच्छी तरह से सफाई की सुविधाएं होनी चाहिए। बरसात और सर्दियों के मौसम में अतिरिक्त देखभाल करें। अन्यथा वे निमोनिया से पीड़ित हो सकते हैं।
बकरीघरकेप्रकार
आप विभिन्न डिजाइनों का उपयोग करके अपने बकरी घर बना सकते हैं।
और विशिष्ट उत्पादन उद्देश्य के लिए विशिष्ट बकरी आवास डिजाइन उपयुक्त है।
बकरियां पालने के लिए दो तरह के घर सबसे आम हैं।
बकरीआवासओवरग्राउंड
आम तौर पर इस प्रकार के घर जमीन के ऊपर बने होते हैं।
यह बकरियों के लिए सबसे आम घर है। आप इस तरह के बकरी घर के फर्श को ईंट और सीमेंट के साथ या बस मिट्टी के साथ बना सकते हैं। बकरी आवास ओवर ग्राउंड
यह बेहतर होगा, अगर आप इस आवास प्रणाली में फर्श पर कुछ सूखे पुआल फैला सकते हैं। लेकिन आपको घर को हमेशा सूखा और साफ रखना होगा।
बकरीआवासओवरपोल
इस प्रकार के घर पोल के ऊपर बने होते हैं।
घर का फर्श जमीन से लगभग 1 से5 मीटर (3.5 से 5 फीट) ऊंचा होते है।
इस प्रकार के घर में बकरी को भिगोने की स्थिति, बाढ़ के पानी आदि से मुक्त रखा जाता है। बकरी आवास ओवर पोल
इस आवास व्यवस्था में डंडे और फर्श आमतौर पर बांस या लकड़ी से बनाए जाते हैं।
बकरी पालन के लिए इस प्रकार का घर बहुत उपयुक्त होते है, क्योंकि इसे साफ करना बहुत आसान होते है।
और आप आसानी से घर की कोठरी और मूत्र को साफ कर सकते हैं। इस आवास व्यवस्था में बीमारियां भी कम होती हैं।
कंक्रीटहाउस
इस प्रकार के बकरी घर पूरी तरह से कंक्रीट से बने होता हैं, और थोड़े महंगे होते हैं। लेकिन कंक्रीट के घरों में कई फायदे हैं।
घर को साफ करना बहुत आसान है।
आप घर का निर्माण जमीन या कंक्रीट के खंभे पर कर सकते हैं।
दोनों प्रकार आसानी से बनाए रखा जाता है।
इस आवास प्रणाली में रोग कम होते हैं। लेकिन यह बकरी आवास की बहुत महंगी विधि है।
बकरियोंकेलिएआवश्यकस्थान
बकरियों के शरीर के आकार और वजन में वृद्धि के अनुसार, उन्हें अधिक स्थान की आवश्यकता होती है।
8 मीटर * 1.8 मीटर * 2.5 मीटर (5.5 फीट * 5.5 फीट * 8.5 फीट) का एक घर 10 छोटी बकरियों के आवास के लिए पर्याप्त है।
प्रत्येक वयस्क बकरी को लगभग75 मीटर * 4.5 मीटर * 4.8 मीटर आवास स्थान की आवश्यकता होती है।
हर बड़ी बकरी को4 मीटर * 1.8 मीटर हाउसिंग स्पेस चाहिए।
यह बेहतर होगा, यदि आप नर्सिंग और गर्भवती बकरियों को अलग-अलग रख सकते हैं।
आप अपने खेत में बकरी की संख्या के अनुसार बकरी के घर का क्षेत्र बढ़ा या घटा सकते हैं। बकरियों के लिए आवश्यक स्थान
लेकिन ध्यान रखें कि, हर बकरी को उचित बढ़ते और बेहतर उत्पादन के लिए अपने आवश्यक स्थान की आवश्यकता होती है।
गर्भवतीपशु
यदि चारागाह की उपलब्धता अच्छी है तो कंसन्ट्रेट मिश्रण के साथ पूरक करने की आवश्यकता नहीं है।
कम चराई की स्थिति में पशुओं को 150 – 200 ग्राम कंसन्ट्रेट / पशु / दिन के साथ पूरक किया जा सकता है।
भेड़ के बच्चे को दूध पिलाने से लेकर निस्तब्धता तक यह पोषक तत्वों की आवश्यकताओं के संबंध में सबसे कम महत्वपूर्ण अवधि है।
ईव्स पूरी तरह से चरागाह पर बनाए रखा जा सकता है।
इस अवधि के दौरान खराब गुणवत्ता वाले चारागाह और निम्न गुणवत्ता के अन्य रागों का लाभ उठाया जा सकता है।
गर्भावस्थाकेपहलेचारमहीनोंकेदौरान:
गर्भवती जानवरों को अच्छी गुणवत्ता वाले चरागाह में प्रति दिन 4-5 घंटे की अनुमति दी जानी चाहिए। गर्भावस्था के पहले चार महीनों के दौरान:
उनके राशन को प्रति दिन 5 किलोग्राम प्रति सिर की दर से उपलब्ध हरे चारे के साथ पूरक किया जाना चाहिए।
गर्भावस्थाकेअंतिमएकमहीनेकेदौरान:
इस अवधि में भ्रूण का विकास 60 – 80 प्रतिशत तक बढ़ जाता है फ़ीड में पर्याप्त ऊर्जा की कमी से मादा में गर्भावस्था के विषाक्तता का कारण बन सकता है।
तो इस अवधि के दौरान जानवरों को प्रति दिन 4-5 घंटे बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले चरागाह में अनुमति दी जानी चाहिए।
चराई के अलावा, जानवरों को कंसन्ट्रेट मिश्रण @ 250-350 ग्राम / पशु / दिन के साथ खिलाया जाना चाहिए।
उनका राशन उपलब्ध हरे चारे के साथ प्रति दिन 7 किलोग्राम प्रति पशु की दर से पूरक होना चाहिए।
बच्चादेनेकेसमयपरपशुकाभोजन
जैसे-जैसे बच्चा देने का समय नजदीक आता है या बच्चा देने के तुरंत बाद अनाज को कम किया जाना चाहिए,
लेकिन अच्छी गुणवत्ता वाले सूखे छौने को खिलाया जाता है।
आमतौर पर विभाजन के दिन हल्के ढंग से खिलाने के लिए बेहतर है, लेकिन स्वच्छ, ठंडे पानी की अनुमति दें। जल्द ही भेड़ के बच्चे को थोड़ा गर्म पानी देना चाहिए।
का राशन धीरे-धीरे बढ़ाया जा सकता है ताकि उसे दिन में छह से सात बार विभाजित खुराक में पूरा राशन प्राप्त हो।
गेहूं के चोकर और जई या मक्का का मिश्रण 1: 1 के अनुपात में उत्कृष्ट है।
बच्चा देने के बाद 75 दिनों के लिए पशुओं को स्तनपान कराना
बच्चादेनेवालेपशुनिम्नलिखितप्रकारसेराशनदेसकतेहै
6-8 घंटे चराई + 10 किलो की हरा चारा / दिन;
6-8 घंटे चराई + मिश्रण के 400 ग्राम / दिन;
6-8 घंटे चराई + अच्छी गुणवत्ता के 800 ग्राम घास / दिन
प्रजननकेलिएखिलाना
अमूमन नर भेड़ के साथ मादा भेड़ को चरने की अनुमति दे रही है।
ऐसी शर्तों के तहत नर भेड़ को मादा भेड़ के समान राशन मिलेगा।
आमतौर पर, यह नर भेड़ की पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करेगा।
जहां नर भेड़ के अलग-अलग भक्षण के लिए सुविधाएं हैं, उसे आधा किलोग्राम एक केंद्रित मिश्रण दिया जा सकता है जिसमें तीन भाग जई या जौ, एक हि स्सा मक्का और एक हिस्सा गेहूं प्रति दिन होना चाहिए।
बकरियों का रोजाना खुराक
फ़ीड की सटीक मात्रा बकरियों के आकार और उम्र पर निर्भर करती है।
लेकिन औसतन, एक बकरी को अपने शरीर के कुल वजन के 3-4 प्रतिशत फ़ीड की आवश्यकता होगी।
भोजन के बिना बकरियों के जीवित रहने की छमता
यह देखा गया है कि बकरियाँ बिना भोजन के लगभग 3 सप्ताह तक और बिना पानी के 3 दिनों तक जीवित रह सकती हैं।
हालांकि, आपको अपनी बकरियों को बिना भोजन और पानी के लंबे समय तक नहीं रखना चाहिए।
प्रति बकरी अनाज की मात्रा
बहुत अधिक अनाज बकरियों के लिए अच्छा नहीं है, और आपको अपने बकरियों को मध्यम मात्रा में अनाज प्रदान करना चाहिए।
औसतन, एक परिपक्व बकरी को रोजाना डेढ़ पाउंड से अधिक अनाज नहीं दिया जाना चाहिए।
और बच्चों को आम तौर पर प्रति दिन अनाज की कम मात्रा (लगभग आधा कप) की आवश्यकता होती है।
याद रखें ‘बहुत अधिक अनाज बकरियों को मार सकता है’
बकरियों की फीडिंग अनुसूची
यह बेहतर होगा यदि आप अपने बकरियों को स्वतंत्र रूप से घूमने की अनुमति दे सकते हैं, खासकर डेयरी बकरियों को।
दूध पिलाने के दौरान दूध पिलाने वाली बकरियों को केंद्रित भोजन प्रदान करें।
और अन्य सभी बकरियों के लिए दिन में एक बार ध्यान केंद्रित फ़ीड प्रदान करें।
बच्चे की बकरियों को उनकी उम्र के आधार पर 2-5 बार दूध पिलाना चाहिए। 3-4 दिन के बच्चों को दिन में 5 बार दूध पिलाना चाहिए।
5 दिन से 3 सप्ताह तक के बच्चों को 3 से 5 बार दूध पिलाएं और 3 सप्ताह से 6 सप्ताह के बच्चों को दिन में दो बार खिलाएं।
बकरियों को खिलाने में होने वाले खर्चे
इसका सटीक उत्तर देना संभव नहीं है।
सटीक राशि कई अलग-अलग कारकों पर निर्भर करती है और जगह-जगह भिन्न हो सकती है।
18.देखभाल: उम्र एवं अवस्था के अनुसार छौना, बकरा या गाभिन बकरी की देखभाल अलग-अलग ढंग से करनी पड़ती है।
बकरियों में होने वाले सामान्य रोग और उनके उपचार
आमतौर पर अन्य मवेशियों की अपेक्षा बकरियाँ कम बीमार पड़ती है।
लेकिन आश्चर्य की बात है कि बहुत कम बीमार होने पर भी इनकी उचित चिकित्सा की ओर से बकरी पालक प्रायः उदासीन रहते हैं
और अपनी असावधानी के कारण पूंजी तक गंवा देते हैं।
बकरी पालन के समुचित फायदा उठाने वाले लोगों को उनके रोगों के लक्षण और उपचार के संबंध में भी थोड़ी बहुत जानकारी रखनी चाहिए ताकि समय पड़ने पर तुरंत ही इलाज का इन्तेजाम कर सकें।
इसलिए बकरियों की सामान्य बीमारियों के लक्षण और उपचार के संबंध में मोटा-मोटी बातें बतलाई जा रही है।
पी. पी. आर. या गोट प्लेग
यह रोग ‘‘काटा’ या ‘‘गोट प्लेग’’ के नाम से भी जाना जाता है।
यह एक संक्रमक बीमारी है जो भेंड़ एवं बकरियों में होती है।
यह बीमारी भेंड़ों की अपेक्षा बकरियों (4 माह से 1 वर्ष के बीच) में ज्यादा जानलेवा होता है।
यह एक खास प्रकार के विषाणु (मोरबिली वायरस) के द्वारा होता है जो रिंडरपेस्ट से मिलता-जुलता है। पी. पी. आर. या गोट प्लेग
लक्षण:
पी. पी. आर. – ऐक्यूट और सब-एक्यूट दो प्रकार का होता है।
एक्यूट बीमारी मुख्यतः बकरियों में होता है।
बीमार पशु को तेज बुखार हो जाता है, पशु सुस्त हो जाता है, बाल खड़ा हो जाता है एवं पशु छींकने लगता है।
आँख, मुँह एवं नाक से श्राव होने लगता है जो आगे चलकर गाढ़ा हो जाता है जिसके कारण आँखों से पुतलियाँ सट जाती है तथा सांस लेने में कठिनाई होने लगती है।
बुखार होने के 2 से 3 दिन बाद मुँह की झिलनी काफी लाल हो जाती है जो बाद में मुख, मसुढ़ा, जीभ एवं गाल के आन्तरिक त्वचा पर छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बे निकल आते है।
3 से 4 दिन बाद पतला पैखाना लगता है तथा बुखार उतर जाता है और पशु एक हफ्ते के भीतर मर जाते हैं।
सब एक्यूट बीमारी मुख्यतः भेड़ों में होती है। इसके उपर्युक्त लक्षण काफी कम दिखाई देते हैं और जानवरों की मृत्यु एक हफ्ते के अन्दर हो जाती है।
मृत्यु दर: 45-85 प्रतिशत
बकरी पशुओं को संक्रामक रोगों से बचाव हेतु टीकाकरण
क्र.
रोग का नाम
टीका लगाने का समय
1.
गलाघोंटू (एच.एस.)
6 माह एवं उसके उपर की उम्र में पहला टीका। उसके बाद वर्ष में एक बार बराबर अन्तराल पर वर्षा ऋतु आरंभ होने से पहले।
2.
कृष्णजंघा (ब्लैक क्वार्टर)
6 माह एवं उससे उपर की उम्र में पहला टीका। उसके बाद वर्ष में एक बार बराबर अन्तराल पर।
3.
एन्थ्रैक्स
4 माह एवं उसके उपर की उम्र में पहला टीका। उसके बाद वर्ष में एक बार बराबर अन्तराल पर (एन्डेमिक क्षेत्रों में)।
4.
ब्रुसेलोसिस
4-8 माह की उम्र के बाछी एवं पाड़ी में जीवन में एक बार। नर में इस टीकाकरण की आवष्यकता नहीं है।
5.
खुरहा-मुँहपका (एफ.एम.डी.)
4 माह एवं उसके उपर की उम्र में पहला टीका। बुस्टर पहला टीका के एक माह के बाद एवं तत्पश्चात् वर्ष में दो बार छः माह के अन्तराल पर।
6.
पी.पी.आर.
4 माह की आयु एवं उसके उपर के सभी मेमनों, बकरियों एवं भेड़ों में। एक बार टीका लगाने के बाद तीन वर्ष तक पशु इस बीमारी से सुरक्षित रहते हैं।
बकरी पालन के लिए सावधानियाँ
बकरी पालन यूँ तो काफ़ी आसान बिज़नेस है लेकिन हमें इसमें कई महत्वपूर्ण चीजों का ख़ास ध्यान रखना होता है। यह कुछ इस प्रकार से हैं:
बकरी पालन के लिए सबसे पहले ध्यान रखना होता है कि उन्हें बकरियों को ठोस ज़मीन पर रखा जाए जहाँ नमी न हो। उन्हें उसी स्थान पर रखें जो हवादार व साफ़ सुथरा हो।
बकरियों के चारे में हरी पत्तियों को जरूर शामिल करें। हरा चारा बकरियों के लिए बहुत फायदेमंद होता है।
बारिश से बकरियों को दूर रखे क्योंकि पानी में लगातार भीगना बकरियों के लिए नुकसान दायक है।
बकरीपालन के लिए तीन चीजें बहुत जरूरी होती हैं:- धैर्य, पैसा, प्लेस, I
बकरी पालन मे बकरियों पर बारीकी से ध्यान देना पड़ता है। अगर आप अच्छी ट्रेनिंग लेंगे तो आप उन्हें एक नजर में देखते ही समझ जायेंगे कि कौन बीमार है और कौन दुरूस्त।
बकरियों पर ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। ये जब भी बीमार होती है तो सबसे पहले खाना-पीना छोड़ देती हैं। ऐसी स्थिति में पशु चिकित्सीय परामर्श भी लेते रहें।
पशुओं के लिए क्रूरता अधिनियम, 1960 पालन करें।
बकरीऔर भेड़ मेंटीकाकरण
हम सभी नोबेल कोरोना COVID-19 जैसे विषाणु जनित महामारी के दंश को झेल चुके/रहें हैं।
चूकि विषाणु जनित बीमारी से बचने का एक मात्रा उपाय टीकाकरण है।
बकरियों में भी PPR और FMD जैसे कई विषाणु जनित बीमारी से बचाव कर अपने व्यवसाय में होने बाले आर्थिक नुकसान के साथ महामारी फैलने से रोक सकतें हैं।
तलिका १ के अनुसार पशुचिकित्सक के सलाह ले कर अपने पशु को समय-समय पर टिका लगवांयें।
तलिका १: भेड़ औरबकरीकाटीकाकरण
क्रमांक
रोग
प्राथमिकटीकाकरण
टीका का नाम
1
पेस्टी डेसपेटिटिस रूमिनेन्ट्स(PPR)
03 महीने और उससे अधिकअगला टिका हर 3 साल में
टिश्यू कल्चर पी.पी.आर. वैक्सीन
2
संक्रामककैप्रिनप्लेउरो –निमोनिया(CCPP)
03 महीनेअगला टिकावार्षिक रूप से (जनवरी
सी. सी. पी. पी. वैक्सीन
3
गॉटपॉक्स
3 महीनेअगला टिकावार्षिक रूप से (दिसंबर
गोट पॉक्स वैक्सीन
4
एफ.एम.डी.(F.M.D.)
4 महीने और ऊपरअगला टिकाएक वर्ष में दो बार (सितंबर और मार्च
रक्षा एफ. एम. डी
5
एंथ्रेक्स
6 महीने और उससे अधिकअगला टिकासलाना इंडेमिक वाले वाले क्षेत्र में
एंथ्रेक्स स्पोर वैक्सीन
6
हेमोरेजिकसेप्टिसीमिया(H.S.)
6 महीने और उससे अधिकअगला टिकामॉनसून से पहले वार्षिक रूप से
रक्षा एच. एस वैक्सीन
7
एन्टेरोटॉक्सीमिआ
यदि बच्चा का टीकाकरण किया गया है तो 4 महीने और उससे अधिक1 सप्ताह में अगर बच्चे का टीकाकरण नहीं हैअगला टिकामॉनसून से पहले वार्षिक रूप सेबूस्टर- प्राथमिक और हर नियमित खुराक के 15 दिन बाद
रक्षावेक ई.टी
8
ब्लैक क्वार्टर(B.Q.)
6 महीने और उससे अधिकअगला टिकावार्षिक रूप से मानसून से पहले (जून)