आज हम आपको एक ऐसे पौधे के बारे में बताने जा रहे हैं जो किसी भी तरह के संक्रामक रोग के साथ ही अन्य बहुत से रोगों के इलाज में बहुत लाभकारी होती है। तो चलिए जानते हैं इस पौधे के बारे में पूरी जानकारी।
This herb fulfills the deficiency of blood in the body.
बहुत से औषधीय पौधों के बारे में तो हम सभी जानते हैं। लेकिन आज भी बहुत से पौधे ऐसे हैं जिनमें हजारों औषधीय गुण होने के बाद भी हम उनके बारे में या उनके प्रयोग के बारे में अंजान हैं। इन्हीं पौधों में एक नाम कुचिला (Kuchla) के पौधे का भी आता है। हममें से बहुत ही कम लोगों ने इस पौधे का नाम सुना है। लेकिन इसमें हमारे शरीर के कई रोगों को ख़त्म करने की ताकत होती है। तो चलिए जानते हैं कि यह पौधा कैसे उपयोगी होता है हमारे लिए।
दक्षिण एशिया वनों में मिलती है यह औषधि
कुचिला (Kuchla) पौधा, जिसका वैज्ञानिक नाम “Strychnos nux-vomica” है, यह उच्च औषधीय महत्व वाला एक प्रमुख औषधीय पौधा है। यह एक छोटा सा पेड़ है जो मुख्य रूप से दक्षिण एशिया के वनों में पाया जाता है। कुचिला पौधे की बीजें औषधीय गुणों के लिए प्रयोग में लाई जाती हैं। इसके बीजों में विभिन्न औषधीय तत्वों की मात्रा होती है, जिन्हें यूनानी चिकित्सा में “नक्स वोमिका” कहा जाता है।
दो ख़ास औषधीय तत्व होते हैं इसमें
कुचिला के बीजों में स्ट्रिक्नीन (Strychnine) और ब्रुसीन (Brucine) नामक दो मुख्य औषधीय तत्व होते हैं. इन तत्वों के कारण कुचिला पौधा तीव्र विषैला भी होता है, और इसे सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाना चाहिए. इन बीजों के उपयोग से बनाए जाने वाली औषधि से अनेक रोगों का इलाज किया जाता है, जैसे कि वातरोग (रीमैटॉयड आर्थराइटिस), जीर्ण खांसी, आर्थराइटिस, यकृत रोग, रक्ताल्पता, मलेरिया, दुर्बलता, जैसे अन्य रोग।
संक्रामक रोगों में भी है कारगर
कुचिला संक्रामक रोगों के इलाज में भी उपयोगी होता है. यह पौधा कठोर, बिंदुपुष्टि वाला होता है, और इसकी तने की रंगत हरे और बैंगनी होती है. कुचिला के बीजों का पाउडर, तेल, अवशोषित रस के रूप में प्रयोग किया जाता है।
हमने आपको शुरुआत में ही बताया है कि यह पौधा विषाक्त भी होता है. तो इसका उपयोग बहुत ही सावधानी पूर्वक करना चाहिए. अगर आप इसका प्रयोग पहली बार कर रहे हैं तो आपको किसी अनुभवी या वैद्य की सलाह ले लेनी चाहिए।
प्राचीन चीन में काले चावल को खाने में मनाही थी। लेकिन चीन के कुछ लोग इसका सेवन गुर्दे, पेट सम्बंधित बीमारियों को ठीक करने के लिए करते थे।
Black Rice
प्राचीन चीन में काले चावल को खाने में मनाही थी। लेकिन चीन के कुछ लोग इसका सेवन गुर्दे, पेट सम्बंधित बीमारियों को ठीक करने के लिए करते थे. जब इसके सेवन से शरीर को लाभ मिलने लगा तो कुछ महान चीनी पुरुषों ने इस चावल को अनाज में शामिल कर लिया और इसकी सार्वजनिक खपत को रोक दिया.जिसके बाद से, काले चावल केवल अमीर और कुलीन वर्गों की संपत्ति बन गया,वह भी सीमित मात्रा में और जांच के दायरे में। आम लोगों को इसका उपभोग करने की अनुमति नहीं थी। लेकिन अब समय के साथ, काले चावल का सेवन सभी लोग करने लगे हैं।
भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से उत्तर पूर्व क्षेत्र और दक्षिणी भागों में की जाती है. यह चावल औषधीय गुणों से पूरी तरह भरपूर हैं। इसकी खुशबू झारसुगुड़ा तक पहुंच गई है.ओडिशा में इस प्रजाति के धान की खेती संबलपुर, सुंदरगढ़, और कंधमाल, कोरापुट आदि जिलों में की जाती है।
काले चावल क्या है ? (What is Black Rice?)
काले चावल सामान्य रूप से आम चावल की तरह ही होता है। इसकी शुरूआत में खेती चीन में हुई थी और फिर इसकी खेती भारत के असम और मणिपुर में शुरू हुई।
पौष्टिकतत्वोंसेभरपूर
इस धान से निकले चावल में भरपूर मात्रा में विटामिन बी, ई के अलावा कैल्शियम, मैग्नीशियम, आयरन तथा जिंक आदि तत्व शामिल होते है। जोकि मानव शरीर में जाकर एंटी ऑक्सीडेंट का काम करते है. विशेषज्ञों का कहना है कि यह चावल कैंसर व डायबिटीज रोगियों के लिए काफी उपयोगी होता है। इसका सेवन करने से रक्त शुद्ध होता है और साथ ही चर्बी कम कर ये आपके पाचन शक्ति को भी बढ़ाता है।
काले चावलखानेकेफायदे (Benefits of Black Rice)
1) मोटापे को दूर रखता है
2) पाचन तंत्र मजबूत बनाता है
3) डायबिटीज में फायदेमंद
4)हृदय सम्बंधित समस्या में सहायक
5)शारीरिक कमजोरी को दूर करता है
6)एंटी-ऑक्सीडेंट के गुणों से भरपूर
ब्लैकराइससलादबनानेकीविधि:
सबसे पहले पैन में पानी गर्म करें फिर उसमें चावल, अदरक के छोटे टुकड़े डाले और अच्छे से उबाल ले जब तक अच्छे से चावल पक न जाए।
एक बार पक जाने के बाद, थोड़ी देर ठंडा होने के लिए छोड़ दें. एक मापने वाले कप में नींबू,अदरक और सिरके को अच्छे से मिलाए.यह सब मिश्रण करने के लिए स्टिक ब्लेंडर का उपयोग करें।
फिर एक कटोरे में चावल, आम, तुलसी और लाल मिर्च को एक साथ रखें. उसके बाद सिरके वाले मिश्रण को चावलों के ऊपर डाले. अब आपका ब्लैक राइस खाने के लिए तैयार है।
अगर आप बार-बार पेट की परेशानी का सामना करते रहते हैं, तो एक बार यह लेख जरूर पढ़ें। ताकि आप इस दिक्कत से मुक्ति पा सकें।
This disease will stay away from drinking drumstick juice
अक्सर शादी व पार्टी में अधिक खाना खाने के बाद कुछ लोगों के पेट खराब हो जाता है. कुछ लोगों को तो कब्ज जैसी परेशानी का सामना भी करना पड़ता है. कब्ज की दिक्कत के चलते लोगों का बैठना व उठना तक मुश्किल हो जाता हैं।
ऐसे में व्यक्ति इस परेशानी से छुटकारा पाने के लिए दवा व अन्य कई चीजों का सेवन करता है, जो बाजार में उपलब्ध होती हैं. लेकिन फिर भी उन्हें इससे पूरी तरह से मुक्ति नहीं मिलती है. लेकिन आज हम जिस चीज के बारे में बताने जा रहे हैं, उसका सेवन करने मात्र से ही आपको कब्ज से व पेट की जलन से पूरी तरह से मुक्ति मिल जाएगी।
सहजन का जूस(Drumstick juice)
सहजन के नाम से तो ज्यादातर लोग प्रचित होंगे. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसे खाने से जितने फायदे मिलते हैं, ठीक उसी तरह से इसके जूस पीने से भी व्यक्ति के पेट से संबंधित कई बीमारी दूर हो जाती हैं. सहजन की फली का जूस जिद्दी से जिद्दी कब्ज की परेशानी से मिनटों में मुक्ति दिलाता है. आइए अब इसके जूस के फायदे के बारे में भी थोड़ा जान लेते हैं।
सहजन जूस बनाने की विधि (Drumstick juice recipe)
सबसे पहले आप सहजन की फलियों को सही तरीके से तोड़ लें और फिर इसे अच्छे से पानी से साफ करें. फिर आपको इसे गर्म पानी में बोइल करना है. इसके बाद आपको इसे मिक्सी मशीन में डालकर जूस बना लेना है. आप चाहे तो इसमें अपने स्वाद के अनुसार कुछ चीजों को भी शामिल कर सकते हैं. जैसे कि चीनी, नमक और पानी आदि लेकिन यह सब आपको बहुत ही थोड़ी मात्रा में डालनी हैं।
कब्ज से छुटकारा
अगर आप सहजन का जूस पीते हैं, तो आपको बार-बार होने वाली कब्ज की समस्या से मुक्ति मिल जाएगी। ताकि आप शादी-पार्टी में बने खाने का आनंद आसानी से उठा पाएं।
डायबिटीज (Diabetes)
यह जूस किसी आयुर्वेदिक औषधि से कम नहीं है। दरअसल, डॉक्टर भी सहजन की फली का जूस पीने की सलाह देते हैं, क्योंकि इसे डायबिटीज के रोगियों को लाभ मिलता है. यह शरीर में ब्लड शुगर लेवल को नियंत्रित रखने में मदद करता है।
हड्डियां मजबूत
इस जूस को नियमित रुप से पीने से शरीर की हड्डियां मजबूत बनती हैं। अगर किसी व्यक्ति की हड्डिया कमजोर हैं, तो वह इस जूस का सेवन जरूर करें. क्योंकि इस जूस में एंटी-इंफ्लामेंट्री गुण व अन्य कई प्रोटीन पाएं जाते हैं।
काले चावल की खेती से किसान अपनी आमदनी को बेहतर कर सकते हैं। आइए इसके बारे में विस्तार से जानें।
काले चावल की खेती किसानों के लिए फायदेमंद
देश में हर साल किसान बड़े पैमाने पर धान की खेती करते हैं. लेकिन ज्यादातर अन्नदाताओं को साधारण चावल की खेती से उचित मुनाफा नहीं मिल पाता है. ऐसे में किसानों के लिए काले धान या चावल की खेती फायदेमंद साबित हो सकती है. तो आइए काले चावल की खेती के बारे में विस्तार से जानें।
पोषक तत्वों का खजाना है काला चावल
काले चावल में प्रोटीन, विटामिन बी, विटामिन बी1, बी2, बी3, बी6 और फोलिक एसिड (बी9) मौजूद होते हैं. जो शरीर के लिए आवश्यक होते हैं. इसके अलावा, काले चावल में फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, सोडियम, पोटेशियम, आयरन और जिंक जैसे खनिज भी पाए जाते हैं. जो बॉन्स की सुरक्षा, खून का निर्माण, मांसपेशियों के कार्यों का समर्थन और अच्छी सेहत के लिए महत्वपूर्ण होते हैं. वहीं, इसमें प्रचुर मात्रा में फाइबर भी मौजूद होता है।
इन राज्यों में होता है काला चावल
पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ में बड़े पैमाने पर काले चावल की खेती होती है. बता दें कि काला चावल सफेद चावल की तुलना में ज्यादा अच्छा माना जाता है. काले चावल में सफेद चावल से ज्यादा पोषक तत्व मौजूद होते हैं. काला चावल खाने से पाचन तंत्र स्वस्थ रहता है और कब्ज की समस्या से राहत मिलती है. काले चावल में कार्बोहाइड्रेट्स की अधिक मात्रा होती है. जो शरीर को ऊर्जा उपलब्ध कराने में मदद करती है. काले चावल की खेती किसी भी मिट्टी में संभव है. गर्मी का मौसम इस चावल की खेती के लिए उपयुक्त होता है. खास बात यह है कि फसल लगाने के बाद काले चवाल का उत्पादन सफेद चावल से ज्यादा होता है।
काले चावल से इतनी कमाई
अब अगर काले चावल से कमाई की बात करें तो बाजार में इसकी कीमत लगभग 400 से 500 रुपये प्रति किलो होती है. वहीं, सफेद चावल ज्यादा से ज्यादा 30 से 40 रुपये किलो के हिसाब से बिकते हैं. इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसान काले चावल की खेती से साल में कितनी कमाई कर सकते हैं।
मंजिष्ठा एक ऐसा औषधीय पौधा है जो आपके शरीर के बहुत से रोगों के लिए लाभकारी होता है।। पूरी जानकारी के लिए पढ़ें यह खबर।
This medicinal plant is very useful
औषधियों का हमारे जीवन में बहुत उपयोग होता है. हम अक्सर अपने आसपास देखते रहते हैं। हम जब भी बीमार होते हैं तो सबसे पहले हम इन्ही औषधियों को प्रयोग करने का प्रयास करते हैं। इनका महत्त्व जीवन में इसलिए भी है क्योंकि इनके खाने से हमको नुकसान बहुत ही कम होते हैं और कोई साइडइफेक्ट भी नहीं होते हैं और जो होते भी वह या तो बिलकुल न के बराबर होते हैं। मंजिष्ठा जिसे वैज्ञानिक नाम से Rubia cordifolia भी कहा जाता है। एक औषधीय पौधा है जो भारतीय औषधि पद्धति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह पौधा पूरे भारत में पाया जाता है और इसके विभिन्न भागों का उपयोग आयुर्वेदिक चिकित्सा में किया जाता है।
रेजिनस (Resins): मंजिष्ठा में पाए जाने वाले रेजिनस शरीर के लिए उपयोगी होते हैं। ये रक्तशोधक गुण रखते हैं और शरीर में रक्त संचार को सुधारने में मदद करते हैं। इसके अलावा, रेजिनस में पाए जाने वाले तत्व त्वचा संबंधी समस्याओं को ठीक करने में भी मदद करते हैं।
रेहिन (Rhein): मंजिष्ठा में पाए जाने वाला रेहिन एक एंथ्राकिनोन्स होता है और शरीर के लिए उपयोगी होता है। यह शोधक गुण रखता है और मदद करता है विषाक्तता को नष्ट करने में। इसके साथ ही, रेहिन शरीर के रक्त में संक्रमण को दूर करने और रक्त संचार को सुधारने में भी मदद करता है।
रेहिन (Rhein): मंजिष्ठा में पाए जाने वाला रेहिन एक एंथ्राकिनोन्स होता है और शरीर के लिए उपयोगी होता है। यह शोधक गुण रखता है और मदद करता है विषाक्तता को नष्ट करने में. इसके साथ ही, रेहिन शरीर के रक्त में संक्रमण को दूर करने और रक्त संचार को सुधारने में भी मदद करता है।
यह पौधे हमारे स्वास्थ्य के लिए तो लाभकारी होते ही हैं साथ ही पर्यावरण के लिए भी बहुत उपयोगी होते हैं।
टमाटर की खेती (Tomato cultivation) करने वाले किसान भाइय़ों के लिए यह लेख काफी मददगार साबित हो सकता है क्योंकि इसमें टमाटर की ऐसी किस्मों के बारे में बताया गया है, जिसे उगाकर किसान अच्छी कमाई कर सकता है।
Hybrid variety of tomato
देश के किसान भाइयों के लिए टमाटर की खेती (Tomato cultivation) किसी फायदे से कम नहीं है। दरअसल इस सब्जियों से किसान हर महीने में अच्छा मुनाफा पा सकते हैं। यह एक ऐसी सब्जी फल है, जिसकी मांग बाजार में साल भर बनी रहती है। इसी के चलते मंडी एवं मार्केट में इसकी कीमत भी हमेशा उच्च रहती है।
अगर आप भी टमाटर की खेती करना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको इसकी सबसे अच्छी किस्मों का चयन करना चाहिए। ताकि आप कम समय में अधिक पैदावार पा सके और फिर उसे सरलता से बाजार में बेचकर मुनाफा कमा सके. जैसा कि आप सब लोग जानते हैं कि खरीफ का सीजन शुरु हो चुका है और देश के ज्यादातर राज्यों में टमाटर की बुवाई किसान भाइयों ने करना भी शुरु कर दी है। अगर आपने अभी तक नहीं की हैं, तो यह लेख आपके लिए अच्छा साबित हो सकता है। दरअसल, आज हम आपके लिए टमाटर की कुछ बेहतरीन किस्मों की जानकारी लेकर आए हैं जिसे आप अपने खेत में सरलता से लगा सकते हैं और डबल मुनाफा पा सकते हैं। तो आइए टमाटर की बेहतरीन किस्मों के बारे में जानते हैं…
अर्का रक्षक (Arka Rakshak)
जैसा कि इसके नाम से पता चलते है कि यह किस्म एक रक्षक है। जी हां यह किस्म टमाटर में लगने वाले प्रमुख रोग, पत्ती, मोड़क विषाणु, जीवाणु झुलसा व अगेती धब्बे की प्रतिरोधी होती है। मिली जानकारी का मुताबिक, टमाटर की यह किस्म लगभग 140 दिनों के अंदर पूरी तरह से तैयार हो जाती है। इससे किसान प्रति हेक्टेयर 75 से 80 टन तक फल का उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। वहीं इसके फलों के वजन की बात करें, तो इनका वजन मध्यम से भारी यानी 75 से 100 ग्राम होता है। यह टमाटर गहरे लाल रंग के होते हैं।
अर्का अभेद (Arka Abhed)
इसे टमाटर की सबसे हाइब्रिड किस्म (Most Hybrid variety of tomato) कहा जा सकता है. क्योंकि यह 140 से 145 दिनों के अंदर तैयार हो जाती है। इस किस्म का एक टमाटर लगभग 70 से 100 ग्राम तक पाया जाता है। इसकी खेती से किसान भाई प्रति हेक्टेयर से 70-75 टन तक फल प्राप्त कर सकते हैं।
दिव्या (Divya)
टमाटर की इस किस्म को रोपाई के 75 से 90 दिनों के अंदर ही किसान को लाभ मिलना शुरु हो जाता है। इसमें पछेता झुलसा और आंख सडन रोग के लिए रोधी किस्म मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि दिव्या किस्म के टमाटर लंबे समय तक चलते हैं। इसके एक फल का वजन भी काफी अच्छा होता है। देखा जाए तो 70-90 ग्राम तक एक टमाटर होता है।
अर्का विशेष (Arka Vishesh)
इस टमाटर की किस्म से किसान प्रति हेक्टेयर 750-800 क्विंटल तक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। यह कई तरह के उत्पादनों को बनाने में भी इस्तेमाल होता है। इस किस्म के प्रति टमाटर का वजन 70 से 75 ग्राम होता है।
पूसा गौरव(Pusa Gaurav)
इसके टमाटर एक दम लाल रंग के होते हैं और यह आकार में भी अच्छे होते हैं। साथ ही यह चिकने होते ह। इसी के चलते बाजार में इसकी मांग अधिक होती है और यह एक ऐसा टमाटार है, जिसे अन्य बाजारों यानी की दूसरे राज्यों व विदेशों में भी भेजा जाता है।
मोटे अनाज को लेकर देश-विदेश में एक अलग ही पहचान मिल रही है. दरअसल इसमें कई तरह के पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं, जो सेहत के लिए लाभकारी होते हैं।
Mota Anaj (millets)
भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की सरकार ने वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष के रूप में मनाने हेतु एक प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र को भेजा गया जो वहां 3 मार्च 2021 को प्राप्त हुआ था। भारत द्वारा प्रस्तुत इस प्रस्ताव का विश्व के 72 देशों ने समर्थन दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ की सामान्य सभा ने प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की गई। इसके लिए 8 मिलेट्स को चिन्हित किया गया है जिसमें ज्वार, बाजरा, रागी, कोदों, कुटकी, कंगनी, चीना, सांवा आदि सम्मिलित हैं।
राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात तथा मध्य प्रदेश सामूहिक रूप से भारत के कुल राष्ट्रीय मिलेट्स उत्पादन में 60 प्रतिशत से अधिक का योगदान करते हैं। भारत में ज्वार, बाजरा, रागी, कंगनी, चीना, कोदों, सावां/झंगोरा, कुटकी, कुट्टू तथा चौलाई/रामदाना सहित लगभग 16 प्रकार के मिलेट्स का भरपूर उत्पादन हो रहा है। केंद्रीय कृषि मंत्री, नरेंद्र सिंह तोमर ने हाल ही में ज़ोर देते हुए कहा था कि गेहूं एवं चावल की तरह ही मिलेट्स को भी भोजन की थाली में सम्मानजनक स्थान दिलाना ही होगा, तभी देश तथा विश्व में इन पोषक अनाजों को बढ़ावा दिया जा सकेगा।
मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए सुदृढ़ रणनीति के अंतर्गत, भारत सरकार विदेशों में भारतीय दूतावासों को भारतीय मिलेट्स की ब्रांडिंग तथा प्रचार-प्रसार करने, अंतर्राष्ट्रीय शेफ़्स की पहचान करने के साथ-साथ संभावित क्रेताओं जैसे डिपार्टमेंटल स्टोर्स, सुपर मार्केट्स तथा हाइपर मार्केट्स को व्यापार से व्यापारिक बैठकें आयोजित करने तथा सीधे टाई–अप करने की सलाह दी है। इसके अतिरिक्त, भारत में लक्षित देशों तथा आयातकों के विदेशी दूतावासों के राजदूतों को खाने के लिए तैयार मिलेट उत्पादों सहित विभिन्न मिलेट आधारित उत्पादों की शोकेसिंग तथा व्यापार बैठकें आयोजित करने हेतु आमंत्रित करने के लिए कहा गया है।
उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार के साथ 16 अन्य देशों में भारतीय मिलेट्स जो पोषक तत्वों के प्रचुर स्त्रोत होने के साथ-साथ विशेष स्वाद के लिए जाने जाते हैं, इसको वैश्विक मंच प्रदान करने के लिए विभिन्न मिलेट प्रोत्साहन कार्यक्रम आयोजित करेगा। एपीडा छोटे स्तर पर तथा लक्ष्य वाले देशों के प्रमुख स्थानीय बाज़ारों में फूड सैंपलिंग तथा परीक्षण कराएगा जहां व्यक्तिगत रूप से उपभोक्तागण भारतीय मिलेट उत्पादों से परिचित हो सकें।
एपीडा दक्षिण अफ्रीका, दुबई, जापान, दक्षिण कोरिया, इन्डोनेशिया, सऊदी अरब, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यूनाइटेड किंग्डम में मिलेट्स को बढ़ावा देने के लिए कुछ उल्लेखनीय फूड शोज, क्रेता-विक्रेताओं की बैठकें तथा रोड शोज में भारतीय हितधारकों की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए योजनाएं बनाएगा। एपीडा ने गुलफूड 2023, फूडेक्स, सिओल फूड एंड होटल शो, सऊदी एग्रो फूड, सिडनी (आस्ट्रेलिया) में आयोजित फाइन फूड शो, बेल्जियम के फूड एंड बेवरेजेज़ शो, जर्मनी के बायोफैक तथा एनुगा फूड फेयर, सैन फ्रांसिस्को के विंटर फ़ैन्सी फूड शो इत्यादि जैसे विभिन्न वैश्विक मंचों में मिलेट्स को प्रोत्साहित करने के विभिन्न क्रिया-कलापों को आयोजित करने की योजना बनाई है।
मोटे अनाज में कैल्शियम, लौह तत्व तथा रेशे प्रचुर मात्रा में होते हैं जो बच्चों में स्वास्थ्य वृद्धि करने हेतु आवश्यक पोषक तत्वों के जैव संवर्धन हेतु परम आवश्यक हैं। आज शिशु आहार तथा पोषक उत्पादों में मिलेट्स का प्रयोग लगातार बढ़ रहा है। इसी प्रकार कई अन्य खनिज लवण भी मिलेट्स प्रचुरता में पाए जाते हैं जो मानव शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने हेतु अत्यंत आवश्यक होते हैं। मिलेट्स अथवा पोषक अनाजों में गेहूं एवं चावल की तुलना में रेशा, कैल्शियम, फास्फोरस तथा लौह तत्वों की मात्रा अधिक होती है। इसी प्रकार विटामिन-बी कॉम्प्लेक्स, विटामिन-ए और विटामिन-ई भी मिलेट्स में प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं जबकि गेहूं एवं चावल में विटामिन- ई, विटामिन-बी 5, विटामिन-बी 6 की मात्रा लगभग नगण्य ही रहती है। मिलेट्स का पोषक मान गेहूं एवं धान जैसी प्रमुखता से उत्पादित की जा रही धान्य फसलों के पोषक मान से कहीं अधिक होता है। इनका उपयोग करेंगे, तो आप स्वस्थ्य रहेंगे यानी मोटे अनाज सेहत के लिए बेहद लाभकारी होते हैं। मोटे अनाज में पोषक तत्वों का खजाना होता है और इनका नियमित मौसम के अनुसार सेवन आपको सेहतमंद रखने में काफी मददगार साबित होगा। मोटे अनाज के सेवन से शरीर को मिलने वाले आवश्यक पोषक तत्वों संबंधी जानकारी का विवरण इस प्रकार से हैं।
अगर आप धान की फसल में अधिक पानी का इस्तेमाल करते हैं, तो यह लेख आप एक बार जरूर पढ़े. ताकि आप धन की फसल में पानी बचाने के तरीके को जानकर लाभ पा सके. बता दें इन तरीकों से आप पानी की बचत तो करेंगे ही साथ ही फसल में भी तेजी से वृद्धि होगी.
How to save water in paddy?
हरियाणा के कुल भौगोलिक क्षेत्र में से, 80 % भू-भाग पर खेती की जाती है और उसमे से 84% क्षेत्र सिंचित खेती के अंदर आता है। राज्य की फसल गहनता 181 % है और कुल खाद्यान्न उत्पादन 13.1 मिलियन टन है। प्रमुख फसल प्रणालियां चावल-गेहूं, कपास-गेहूं और बाजरा-गेहूं हैं। राज्य का लगभग 62% क्षेत्र खराब गुणवत्ता वाले पानी से सिंचित किया जाता है। इसके बावजूद भी किसान धान की खेती करता है। राज्य में चावल की खेती के तहत लगभग 1 मिलियन हेक्टेयर है, जो ज्यादातर सिंचित है। राज्य की औसत उत्पादकता लगभग 3.1 टन/हेक्टेयर है। धान की लगातार खेती और इसमें सिंचाई के लिए पानी के इस्तेमाल से लगातार भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। धान के उत्पादन में प्रमुख बाधाएं हैं. पानी की कमी, मिट्टी की लवणता क्षारीयता, जिंक की कमी और बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट। इस लेख में धान की खेती में पानी की बचत करने के बारे में बताया गया है।
कम अवधि वाली किस्में
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों (SAU) ने पूसा बासमती 1509 (115 दिन), पूसा बासमती 1692 (115 दिन) और पूसा बासमती 1847 (125 दिन) और पूसा बासमती 1847 (125 दिन) सहित उच्च उपज वाली कम अवधि वाली बासमती चावल की किस्में विकसित की हैं। गैर-बासमती श्रेणी में सुगंधित चावल की किस्में PR 126 (120-125 दिन), पूसा एरोमा 5 (125 दिन) और पूसा 1612 (120 दिन) आती है। जल्दी पकने वाली ये किस्में लगभग 20-25 दिन पहले परिपक्व हो जाती हैं जो किसानों को पुआल प्रबंधन के लिए समय देती है इसके साथ गेहूं की बुवाई के लिए खेतों की तैयार करने का भी समय मिल जाता है। दो से पांच सप्ताह कम समय की वजह से पानी की लागत भी कम हो जाती है।
प्रत्यारोपण का समय
उच्च बाष्पीकरणीय मांग की अवधि (जून) के दौरान चावल की रोपाई के परिणामस्वरूप बहुत अधिक भूजल का खनन हो सकता है। भारतीय राज्य हरियाणा, पंजाब, दिल्ली में जल स्तर वर्तमान में 0.5-1.0 मीटर प्रति वर्ष की दर से गिर रहा है। अनाज की पैदावार बढ़ाने और पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए पानी की बचत की तकनीकों को अपनाने की आवश्यकता है। धान की रोपाई जून के आखिरी सप्ताह या जुलाई के पहले सप्ताह में करनी चाहिए। ऐसा करने से वाष्पीकरण से उड़ने वाले पानी की बचत होती है और पैदावार का भी ज्यादा नुकसान नहीं होता।
वैकल्पिक गीली सूखी विधि (AWD)
वैकल्पिक गीली सूखी (AWD) विधि धान की खेती में जल को बचाने के साथ-साथ मीथेन के उत्सृजन को भी नियंत्रित करती है। इस विधि का उपयोग तराई में रहने वाले किसान सिंचित क्षेत्रों में अपने पानी की खपत को कम करने के लिए कर सकते हैं। इस तकनीक का उपयोग करने वाले चावल के खेतों को बारी-बारी से पानी से भरा जाता है और सुखाया जाता है। AWD में मिट्टी को सुखाने के दिनों की संख्या मिट्टी के प्रकार और धान की किस्म के अनुसार 1 दिन से लेकर 10 दिनों से अधिक तक हो सकती है।
कृषि से 10 % ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए चावल की खेती जिम्मेदार है। AWD को नियंत्रित सिंचाई भी कहा जाता है। सुखी और कठोर मिट्टी में सिंचाई के दिनों की संख्या 1 से 10 दिनों से अधिक हो सकती है। AWD तकनीक को लागू करने का एक व्यावहारिक तरीका एक साधारण वॉटर ट्यूब का उपयोग करके क्षेत्र में जल स्तर की गहराई का ध्यान रखना पड़ता है। जब पानी का स्तर मिट्टी की सतह से 15 से0मी0 नीचे होता है, लगभग 5 से0मी0 तक सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। ऐसा हमे धान में फ्लॉवरिंग के समय करना चाहिए। पानी की कमी से बचने के लिए चावल के खेत में पानी की गहराई 5 सें0मी0 होनी चाहिए, जिससे चावल के दाने की उपज को नुकसान नहीं होता। 15 सें0मी0 के जल स्तर को ‘सुरक्षित AWD‘ कहा जाता है, क्योंकि इससे उपज में कोई कमी नहीं आएगी। चावल के पौधों की जड़ें तर बतर मिट्टी से पानी लेने में सक्षम होती है।
धान की सीधी बिजाई (डीएसआर)
यहां पहले से अंकुरित बीजों को ट्रैक्टर से चलने वाली मशीन द्वारा सीधे खेत में डाला जाता है। इस पद्धति में कोई नर्सरी तैयार करने या रोपाई शामिल नहीं है। किसानों को केवल अपनी भूमि को समतल करना है और बिजाई से पहले एक सिंचाई करनी होती है।
यह पारंपरिक पद्धति से किस प्रकार भिन्न है?
धान की रोपाई में, किसान नर्सरी तैयार करते हैं जहाँ धान के बीजों को पहले बोया जाता है और पौधों में खेतों में रोपाई की जाती है। नर्सरी बीज क्यारी प्रतिरोपित किए जाने वाले क्षेत्र का 5-10% है। फिर इन पौधों को उखाड़कर 25-35 दिन बाद पानी से भरे खेत में लगा दिया जाता है।
डीएसआर का लाभः
पानी की बचत:डीएसआर के तहत पहली सिंचाई बुवाई के 21 दिन बाद ही आवश्यक है। इसके विपरीत रोपित धान में, जहां पहले तीन हफ्तों में जलमग्न/बाढ़ की स्थिति सुनिश्चित करने के लिए व्यावहारिक रूप से रोजाना पानी देना पड़ता है।
कम श्रम:एक एकड़ धान की रोपाई के लिए लगभग 2,400 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से तीन मजदूरों की आवश्यकता होती है। डीएसआर में इस श्रम की बचत हो जाती है।
डीएसआर के तहत खरपतवार नाशी की लागत 2,000 रुपये प्रति एकड़ से अधिक नहीं होगी।
खेत के कम जलमग्न होने के कारण मीथेन उत्सर्जन को कम होता है और चावल की रोपाई की तुलना में मिट्टी के साथ ज्यादा झेडझाड़ भी नहीं होती।
रिज बेड ट्रांसप्लांटिंग
कठोर बनावट वाली मिट्टी में सिंचाई के पानी को बचाने के लिए धान को मेड़ों/क्यारियों पर लगाया जा सकता है। खेत की तैयारी के बाद (बिना पडलिंग किए), उर्वरक की एक बेसल खुराक डालें और रिजर गेहूँ की क्यारी बोने की मशीन से मेड़ों/क्यारियों तैयार करें। रिज में सिंचाई करें और मेड़ों/क्यारियों के ढलानों (दोनों तरफ) के मध्य में पौधे से पौधे की दूरी 9 सें.मी. प्रति वर्ग मीटर 33 अंकुरों को सुनिश्चित करके रोपाई करे।
लेजर भूमि समतल
धान की रोपाई के बाद स्थापित होने के लिए पहले 15 दिनों के लिए धान के खेत को जलमग्न रखने की आवश्यकता होती है। अधिकतर नर्सरी के पौधे या तो खेत में पानी की कमी या अधिकता के कारण मर जाते हैं। इस प्रकार, उचित पौधे के खड़े होने और अनाज की उपज के लिए भूमि का समतलीकरण करना बहुत आवश्यक है। अध्ययनों ने संकेत दिया है कि खराब फार्म डिजाइन और खेतों की असमानता के कारण खेत में सिंचाई के दौरान पानी की 20-25 % मात्रा बर्बाद हो जाती है।
लेजर लेवेलर के फायदे निम्नलिखित हैः
सिंचाई के पानी की बचत करता है।
खेती योग्य क्षेत्र में लगभग 3 से 5% की वृद्धि होती है।
फसल स्थापना में सुधार होता है।
फसल परिपक्वता की एकरूपता में सुधार होता है।
जल अनुप्रयोग दक्षता को 50% तक बढ़ाता है।
फसल की पैदावार में बढ़ोतरी होती है (गेहूं 15%, गन्ना 42%, चावल 61% और कपास 66% )
खरपतवार की समस्या कम होती है और खरपतवार नियंत्रण दक्षता में सुधार होता है।
खरीफ में ज्वार की फसल सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। ज्वार की किस्मों में एक कटाई से लेकर तीन-चार कटाईयां देने की क्षमता है। गर्मी के मौसम में उगाई गई ज्वार में पानी की कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि ज्वार के चारे में धुरिन नामक विषैले पदार्थ की मात्रा विशेषकर गर्मी के मौसम में अधिक हो जाती है। पशुओं के लिए इसका चारा पर्याप्त रूप से पौष्टिक होता है। ज्वार का हरा चारा, कड़वी तथा साइलेज तीनों ही रूपों में पशुओं के लिए उपयोगी है।
खरीफ में ज्वार की फसल सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। ज्वार की किस्मों में एक कटाई से लेकर तीन-चार कटाईयां देने की क्षमता है। गर्मी के मौसम में उगाई गई ज्वार में पानी की कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि ज्वार के चारे में धुरिन नामक विषैले पदार्थ की मात्रा विशेषकर गर्मी के मौसम में अधिक हो जाती है। पशुओं के लिए इसका चारा पर्याप्त रूप से पौष्टिक होता है। ज्वार का हरा चारा, कड़वी तथा साइलेज तीनों ही रूपों में पशुओं के लिए उपयोगी है।
खेत की तैयारी
इसकी खेती वैसे तो सभी पराक्र की मिट्टी में कि जा सकती है परन्तु दोमट, बलुई दोमट, सर्वोत्तम मानी गई है। ज्वार के लिए खेत को अच्छी तरह तैयार करना आवश्यक है। सिंचित इलाकों में दो बार गहरी जुताई करके पानी लगाने के बाद बत्तर आने पर दो जुताइयां करनी चाहिए।
बुवाई का समय
सिंचित इलाकों में ज्वार की फसल 20 मार्च से 1- जुलाई तक बो देनी चाहिए. जिन क्षेत्रों में सिंचाई उपलब्ध नहीं हैं वहां बरसात की फसल मानसून में पहला मौका मिलते ही बो देनी चाहिए। अनेक कटाई वाली किस्मों/संकर किस्मों की बीजाई अप्रैल के पहले पखवाड़े में करनी चाहिए। यदि सिंचाई व खेत उपलब्ध न हो तो बीजाई मई के पहले सप्ताह की जा सकती है।
चारे की विभिन्न किस्में
एक कटाई देने वाली किस्में–हरियाणा चरी 136, हरियाणा चारी 171 हरियाणा चरी 260, हरियाणा चरी 307, पी.ससी-9 अधिक कटाई वाली किस्में-मीठी सूडान (एस एस जी 59-३), एफ, एस एच 92079 (सफेद मोती) बीज एवं बीज की मात्रा यदि कहत भली प्रकार तैयार हो तो बुवाई सीडड्रील से 2.5 से 4 सेंमी गहराई पर एवं 25-30 सेंटीमीटर की दूरी पर लाइनों में करें. ज्वार की बीज दर प्रायः बीज के आकार पर निर्भर करती है। बीज की मात्रा 18 से 24 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से बीजाई करें। यदि खेत की तैयारी अच्छी प्रकार न हो सके तो छिटकाव विधि से बुवाई की जा सकती है जिसके लिए बीज की मात्रा में 15-20% वृद्धि आवश्यक है। अधिक कटाई वाली किस्में/संकर किस्मों के ली 8-10 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ के हिसाब से डालें।
खाद एवं उर्वरक
सिंचित इलाकों में इस फसल के लिए 80 किलोग्राम नाइट्रोजन व 30 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है। सही तौर पर 175 किलोग्राम यूरिया और 190 किलोग्राम एस एस पी एक हैक्टर में डालना पर्याप्त रहता है। यूरिया की आधी मात्रा और एस एस पी की एक पूरी मात्रा बीजाई से पहले डालें तथा यूरिया की बची हुई आधी मात्रा बीजाई एक 30-35 में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन (112 किलोग्राम यूरिया) प्रति हैक्टर बीजाई से पहले डालें। अधिक कटाई देने वाली किस्मों से पहले व 30 किलो नाइट्रोजन प्रति हैक्टर हर कटाई के बाद सिंचाई उपरांत डालने से अधिक पैदवार मिलती है।
सिंचाई
वर्षा ऋतु में बोई गई फसल में आमतौर पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। मार्च व अप्रैल में बीजी गई फसल में पहली सिंचाई बीजाई के 15-20 दिन बाद तथा आगे की सिंचाई 10-15 दिन के अंतर पर करें. मई-जून में बीजी गई फसल में 10-15 दिन के बाद पहली सिंचाई करें तथा बाद में आवश्यकतानुसार करें। अधिक कटाई वाली किस्मों में हर कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करें. इससे फुटव जल्दी व अच्छा होगा।
खरपतवार नियंत्रण
ज्वार में खरपतवार की समस्या विशेष तौर पर वर्षाकालीन फसल में अधिक पाई जाती है। सामान्यतः गर्मियों में बीजी गई फसल में एक गोड़ाई पहली सिंचाई के बाद बत्तर आने पर पर करनी चाहिए। यदि खरपतवार की समस्या अधिक हो तो एट्राजीन का छिड़काव् करे। क्योंकि चारे की ज्वार में किसी भी प्रकार के रसायन के छिड़काव को बढ़ावा नहीं दिया जाता।
रोग एवं कीट नियंत्रण
चारे की फसल में छिड़काव् कम ही करना चाहिए तथा छिड़काव् के बाद 25-30 दिन तक फसल पशुओं को नहीं खिलानी चाहिए।
कटाई और एच.सी. एन. का प्रबंध
चारे की अधिक पैदावार व गुणवत्ता के लिए कटाई 50% सिट्टे निकलने के पश्चात करें. एच.सी.एन. ज्वार में एक जहरीला तत्व प्रदान करता अहि। अगर इसकी मात्रा 2000 पी.पी.एम्. से अधिक हो तो यह पशुओं के लिए हानिकारक हो सकता है। 35-40 दिन की फसल में एच.सी. एन की मात्रा अधिक होती है। लेकिन 40 दन के बाद इसकी मात्रा अधिक होती है। लेकिन 40 दिन से पहले नहीं काटना चाहिए। अगर कटाई 40 दिन में करनी अत्यंत आवश्यक हो तो कटे हुए चारे को पशुओं को खिलाने से पहले 2-3 घंटे तक खुली हवा में छोड़ डे ताकि एच.सी. एन. की मात्रा कुछ कम हो सके।
अधिक कटाई वाली किस्मों में हरे चारे की अधिक पैदवार के लिए पहली कटाई बीजाई के 50 से 55 दिनों के पश्चात एवं शेष सभी कटाईयां 35-49 दिनों के अंतराल पर करें। अगर पहली कटाई देर से की जाए तो सूखे चारे में वृद्धि होती है परन्तु हरे चारे की पैदवार व गुणवत्ता कम हो जाती है। अच्छे फुटाव के लिए फसल को भूमि से 8 -10 सेंटीमीटर की उंचाई पर से काटें।
बीज का बनना
दाने वाली फसल के लिए बीजाई 10 जुलाई तक रकें। इस समय बीजी गई फसल से दाने की पैदवार सबसे ज्यादा मिलती है। जल्दी मिलती है। जल्दी बिजी गई फसलों में मिज कीड़े का आक्रमण इतना अधिक होता है कि दाने का रस चूसने से पैदवार काफी घट जाती है।
उपज
चारे की उपज ज्वार की किस्म तथा कटाई की अवस्था पर काफी कुछ निर्भर करती हैं यदि उन्नत तरीकों से खेती की जाए तो एक कटाई वाली फसल से 250-400 क्विंटल व् अधिक कटाई वाली किस्मों से हरे चारे की उपज 500-700 किवंटल प्रति हैक्टर प्रातो हो सकते हैं।
अगर आप खेती करने की सोच रहे हैं तो ऐसे में आप ज्वार की खेती कर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं, यह फसल आपको अच्छी सेहत के साथ मोटा मुनाफा भी देगी।
Sorghum crop cultivation in india
ज्वार मुख्य रूप से खरीफ की एक प्रमुख मिलैट फसलों में से एक है। जिसे किसान भाई खाने के साथ-साथ चारे एवं दाने के रूप में उगाते हैं तथा ज्वार को मोटे अनाजों का राजा भी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश में ज्वार की फसल मुख्य रूप से चारे के लिये उगाई जाती है। ज्वार का इस्तेमाल चारे के रूप में किया जाता है। जानवरों को हरे चारे एंव सूखे चारे तथा साइलेज बनाकर खिलाया जाता है। इस प्रकार ज्वार जानवरों का महत्वपूर्ण एंव पौष्टिक चारा है। गेहूं की तरह ज्वार को भी आटे के रूप में प्रयोग करते हैं। ज्वार में शर्करा की काफी मात्रा पाई जाती है तथा ज्वार की अच्छी फसल के लिये मृदा का पी.एच. मान 5.5-8.5 होना चाहिये।
जलवायुः-ज्वार उष्ण जलवायु की फसल है परन्तु शीघ्र पकने वाली जातिया ठंडे प्रदेशों में भी गर्मीं के दिनों में उगाई जा सकती हैं। 25-30 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर उचित नमी की उपस्थिति में ज्वार की वृद्धि सबसे अच्छी होती है। फसल में बाली निकलते समय 30 डिग्री सेल्सियस सें अधिक तापक्रम, फसल के लिये हानिकारक होता है।
खेत का चुनाव तथा तैयारीः- बलुई दोमट अथवा ऐसी भूमि जहां जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो, ज्वार की खेती के लिये उपयुक्त होती है। मिटृी पलटने वाले हल से पहली जुताई तथा अन्य दो-तीन जुताई देशी हल से करके खेत को भाली भांति तैयार कर लेना चाहियें।
बुवाई का समयः-
खरीफ ज्वारः- ज्वार की बुवाई हेतु जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय अधिक उपयुक्त है।
रबी ज्वारः- रबी के मौसम में ज्वार की खेती महाराष्ट्र, कर्नाटक व आन्ध्रप्रदेश में की जाती है। यहां पर बुवाई का उपयुक्त समय अक्टूबर से नवम्बर तक है।
उन्नतशील प्रजातियां:- ज्वार की संकर किस्मों में सी.एस.एच.-1 से सी.एस.एच.-8 तक तथा उच्च उपज वाली किस्में सी.एस.वी.-1 से सी.एस.एच.-7 तथा उ.प्र. में मऊ टा-1, 2, वर्षा, सी.एस.वी.-13, 15 एंव संकर सी.एस.एच.-9, 14 तथा रबी चारे के लिये एम.35-1 तथा चारे वाली किस्में एम-35-1, पूसा चरी, राजस्थान चरी, एस.एस.जी.-888 मीठी सुडान उपयुक्त किस्म है।
बीज की मात्राः-दाने के खेत की बुआई के लिए किसान भाईयों को 9-12 किलोग्राम/प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है तथा चारे के खेत की बुवाई के लिये किसान भाईयों को 35-40 किलोग्राम/प्रति हेक्टेयर है।
बीजोपचारः-किसान भाईयों का बोने से पूर्व एक किग्रा0 बीज को एक प्रतिशत पारायुक्त रसायन या थीरम के 2.5 ग्राम से शोधित कर लेना चाहियें। जिससे अच्छा जमाव होता है एवं कंडुवा रोग नहीं लगता है। दीमक के प्रकोप से बचने हेतु 25 मि0लीटर प्रति किग्रा0 बीज की दर से क्लोरोपायरीफास दवा से शोधित करना चाहियें।
पंक्तियों एंव पौधों की दूरीः-ज्वार की फसल की बुआई किसान भाईयों को 45 सेमी0 लाइन से लाइन की दूरी पर हल के पीछे करनी चाहियें। पौधे से पौध की दूरी 15-20 सेमी0 होनी चाहिये।
उर्वरक एंव खाद प्रबन्धः-किसान भाईयों को उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना श्रेयस्कर होगा। उत्तम उपज के लिये संकर प्रजातियों के लिये नत्रजन 80 फॅास्फारेस 40 एवं पोटाश 20 किग्रा0 एवं अन्य प्रजातियों हेतु नत्रजन 40 फास्फारेस 20 एवं पोटाश 20 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिये। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फोस्फोरस एंव पोटाश की पूरी मात्रा खेत में बुवाई के समय कूंडों में बीज के नीचे डाल देनी चाहियें तथा नत्रजन का शेष भाग बुवाई के लगभग 30-35 दिन बाद खड़ी फसल में प्रयोग करना चाहियें।
सिंचाई प्रबन्धः-फसल में बाली निकलते समस और दाना भरते समय यदि खेत में नमी कम हो तो सिंचाई अवश्य कर दी जाए अन्यथा इसका उपज पर प्रतिकूल प्रभाव दिखाई पड़ता है।
खरपतवार नियन्त्रणः-ज्वार की फसल में किसान भाईयों को तीन सप्ताह बाद निराई एवं गुडाई कर देनी चाहियें। यदि खेत में पौधों की संख्या अधिक हो तो थिनिंग कर दूरी निश्चित कर ली जाय।
रसायन नियन्त्रण के लिये एट्राजिन 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के तुरन्त बाद 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव कर देना चाहियें।
कीट नियन्त्रणः- ज्वार की प्ररोह मक्खी (शूट फलाई):- यह घरेलू मक्खी से छोटे आकार की होती है। जिसका शिशु (मैगेट) जमाव के प्ररम्भ होते ही फसल को हानि पहुंचाता है। इसके उपचार हेतु मिथाइल ओडिमेटान 25 ई.सी. 1 लीटर अथवा मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिडकाव करें।
तनाछेदक कीटः- इस कीट की सुंडियां तनें में छेद करके अन्दर ही अन्दर खाती रहती है। जिससे बीज का गोभ सूख जाता है। इसके उपचार हेतु क्विनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. 1.50 लीटर को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।
ईयर हेड मिजः- प्रौढ मिज लाल रंग की होती है और यह पुष्प पत्र पर अण्डे देती है। लाल मैगेट्स दानों के अन्दर रहकर उसका रस चूस लेती है, जिससे दाने सूख जाते हैं। इसके उपचार के लिये किसान भाई इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1.5 लीटर अथवा कार्बराइल (50 प्रतिशत घूलनशील चूर्ण) 1.25 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें।
ईयर हेड कैटर पिलरः-इसकी गिडारें मुलायम दाने को खाकर नष्ट कर देती हैं तथा भुटृों में जाला बना देती है। इस रोग के उपचार के लिये इन्डोसल्फान 35 ई.सी का 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का घोल बनाकर छिडकाव करें।
ज्वार का माइटः-यह बहुत ही छोटा होता है, जो पत्तियों की निचली सतह पर जाले बुनकर उन्ही के अन्दर रहकर रस चूसता रहता है। ग्रसित पत्ति लाल रंग की दिखाई पडनें लगती है तथा सूख जाती है। इस रोग के रोकथाम के लिये किसान भाईयों को डाइमेथोएट 30 ई.सी. का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा डायजिनान 20 ई.सी का 1.5 लीटर से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर छिडकाव करें।
फसल की कटाईः-ज्वार के पौधे 110 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते है। जब पौधों पर लगी पत्तिया सूखी दिखाई देने लगे उस दौरान पौधों की कटाई कर लें। इसके फसल की कटाई दो से तीन बार तक की जा सकती है। ज्वार के पौधों को भूमि की सतह के पास से काटा जाता है तथा फसल कटाई के पश्चात् दानों को अलग कर लिया जाता है, और उन्हें ठीक से सूखा लिया जाता है। इसके बाद मशीन के माध्यम से दानों को अलग कर लें।
फसल की पैदावार और लाभः-एक हेक्टेयर के खेत से हरे चारे के रूप में 600 से 700 क्विंटल तक फसल प्राप्त हो जाती है, तथा सूखे चारे के रूप में 100 से 150 क्विंटल का उत्पादन मिल जाता है जिसमे से 25 क्विंटल तक ज्वार के दाने मिल जाते है। ज्वार के दानों का बाजारी भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल होता है। इस हिसाब से किसान भाई ज्वार की एक बार की फसल से 60 हजार रूपए तक की कमाई प्रति हेक्टेयर के खेत से कर सकते हैं।